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द्वितीय परिच्छेद: सूत्र ११
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प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय कैसे सिद्ध होगा । हम कह सकते हैं कि हम लोगों के प्रत्यक्ष की तरह केवली का प्रत्यक्ष भी इन्द्रियजन्य है । इसी प्रकार वक्ता होने के कारण कवली को सराग भी मानना पड़ेगा । ऐसा नहीं हो सकता है कि आप केवली में कवलाहार तो मानें तथा इन्द्रियप्रत्यक्षत्व और सरागता न मानें। जिस प्रकार केवली भगवान् का शरीर परमौदारिक होने के कारण सप्तधातुरूप मल से रहित होता है, उसी प्रकार कवलाहार के बिना भी शरीर की स्थिति होने में कोई विरोध नहीं है । कवलाहार और शरीरस्थिति में कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है । सुना जाता है कि बाहुबली आदि महापुरुषों को एक वर्ष तक आहार न मिलने पर भी उनकी शरीरस्थिति में कोई व्याघात नहीं हुआ । निष्कर्ष यह है कि शरीरस्थिति का प्रधान कारण आयु कर्म है । कवलाहार तो सहायकमात्र है । छद्मस्थ अवस्था की तरह केवली अवस्था में भी कवलाहार मानने वालों को उनमें आँख की पलक का बन्द होना तथा नख, केशादि की वृद्धि भी मानना चाहिए । किन्तु वे ऐसा मानते नहीं हैं ।
यदि ऐसा कहा जाय कि वेदनीय कर्म के सद्भाव के कारण केवली में कवलाहार की सिद्धि होती है, तो इस कथन में कथंचित् सत्य है, सर्वथा नहीं । इस कथन से इतना ही सिद्ध हो सकता है कि वेदनीय कर्म अपना फल देता है । इससे यह कैसे सिद्ध होता है कि वह भुक्तिरूप फल देता है । यथार्थ बात यह है कि केवली में मोहनीय कर्म के अभाव के कारण सातावेदनीय तथा असातावेदनीय अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होते हैं । अतः मोहनीय कर्म के नष्ट हो जाने पर वेदनीय आदि अघातिया कर्मों में अपने कार्य को करने की सामर्थ्य नहीं रहती है । यदि कर्मों का उदय परनिरपेक्ष होकर कार्य करे तो प्रमत्त आदि गुणस्थानों में तीन वेदों और कषायों का उदय होने से मैथुन आदि का प्रसंग भी प्राप्त होगा । ऐसी स्थिति में मन के संक्षोभ के कारण क्षपक श्रेणी का आरोहण और शुक्लध्यान की प्राप्ति कैसे होगी ? तथा इनके बिना कर्मों का क्षपण कैसे होगा ? एक बात यह भी है कि बुभुक्षा मोहनीय निरपेक्ष वेदनीय का कार्य नहीं हो सकती है । भोजन करने की इच्छा का नाम बुभुक्षा है । और इच्छा मोहनीय कर्म का कार्य है । तब बुभुक्षा केवल वेदनीय कर्म का कार्य कैसे
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