SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . कौन जीव आहारक होते हैं और कौन अनाहारक होते हैं इस विषय में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोमट्टसार जीवकाण्ड में बतलाया है विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुद्घदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणो जीवा ॥ -गोमट्ट० जीवकाण्ड गाथा ६६६ अर्थात् विग्रहगति को प्राप्त चारों गति के जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करने वाले सयोगकेवली, अयोगकेवली और समस्त सिद्ध जीव अनाहारक ( आहार रहित ) होते हैं । इनके अतिरिक्त शेष सब जीव आहारक होते हैं । विशेष दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवलीसमुद्घात चार प्रकार का होता है । इन चारों के करने में ८ समय लगते हैं । प्रतर और लोकपूरण समुद्घात के समय केवल कार्मणयोग रहने के कारण तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में केवली भगवान् अनाहारक रहते हैं । और शेष पाँच समयों में वे आहारक होते हैं ।। इसी प्रकार विग्रहगति को प्राप्त जीव एक समय या दो समय अथवा तीन समय तक अनाहारक रहता है और चौथे समय में नियम से आहारक हो जाता है। ___ अब यदि आप ( श्वेताम्बर ) देहस्थिति न बन सकने का तर्क देकर केवली में कवलाहार सिद्ध करना चाहतें हैं तो हमारा प्रश्न यह है कि देव कवलाहार नहीं करते हैं, फिर भी उनकी देहस्थिति कैसे बनी रहती है ? इस पर आप कहना चाहेंगे कि देवों का शरीर वैक्रियिक है और केवली का शरीर औदारिक है । वैक्रियिक शरीर होने के कारण देव कवलाहार नहीं करते हैं और औदारिक शरीर होने के कारण केवली कवलाहार करते हैं। इसके उत्तर में हमारा कहना यह है कि केवली का शरीर औदारिक नहीं है । किन्तु परमौदारकि है । इस कारण केवली अवस्था में केशादि की वृद्धि के अभाव की तरह भुक्ति का भी अभाव रहता है । औदारिक शरीर होने के कारण केवली में कवलाहार मानने वालों के यहाँ केवली का
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy