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________________ द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११ के सुख को कादाचित्क होने से उसकी उत्पत्ति पञ्चेन्द्रियों के विषयों द्वारा होती है । परन्तु यदि केवली के सुख को भी ऐसा ही माना जाय तो उसमें अनन्तता का व्याघात होगा ही । रागद्वेषरहित होने के कारण भी कवलाहार ग्रहण करने के लिए केवली का प्रयास नहीं हो सकता है । यदि केवली कवलाहार करते हैं तो रथ्यापुरुष की तरह उनमें सरागता का प्रसंग प्राप्त होता है । अभिलाषा से आहार में प्रवृत्ति होने के कारण और अरुचि से निवृत्ति होने के कारण केवली में वीतरागता कैसे बनेगी ? यहाँ यह बात जानने योग्य है कि मोहनीय कर्म के सद्भाव में भाोजनादि को करने वाले प्रमत्तगुणस्थानवर्ती साधु परमार्थ से वीतराग नहीं होते हैं । इसीलिए वे कवलाहार करते हैं । ____ अब यदि ऐसा माना जाय कि अतिशय विशेष के कारण अभिलाषा के अभाव में भी केवली कवलाहार करते हैं तो फिर उनमें कवलाहार के अभावरूप अतिशय को मान लेने में क्या आपत्ति है । जब अतिशय मानना ही है तो कवलाहार के अभाव का अतिशय मान लीजिए । यह कहना भी ठीक नहीं है कि आहार के अभाव में केवली की देहस्थिति नहीं बन सकेगी । यदि ऐसी बात है तो हम यहाँ पूछेगे कि ऐसा कहकर आप (: श्वेताम्बर ) केवली में सामान्य आहार को सिद्ध करना चाहते हैं या कवलाहार को । इनमें से प्रथम विकल्प तो हम लोगों ( दिगम्बरों ) के अनुकूल है । क्योंकि हमने माना है कि सयोगकेवली पर्यन्त सब जीव आहारक होते हैं । अतः केवली में कवलाहार के अभाव में भी कर्मनोकर्म के आदानरूप आहार पाया ही जाता है । आगम में आहार छह प्रकार का बतलाया गया है णोकम्म कम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओज मणो विय कमसो आहारो छव्विहोणेयो ॥ -भावसंग्रह गाथा ११० ( देवसेन ) अर्थात् नोकर्माहार, कर्माहार, कवलाहार, लेपाहार, ओजाहार ( उष्माहार ) और मानसिक आहार ये आहार के छह भेद हैं । ऐसा नहीं है कि कवलाहार करने वाले जीव ही आहारक होते हैं । ऐसा मानने पर तो एकेन्द्रिय जीव, 'अण्डज जीव और देव इन सब को अनाहारक मानना पड़ेगा जो आगम विरुद्ध है।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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