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________________ द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११ रहता है तब ऐसे निर्वाण को मानने से लाभ ही क्या है । वास्तविक निर्वाण तो वह है जिसमें आत्मा अपने अनन्तज्ञानादि गुणों की अनुभूति में सदा लीन रहता है । महायानी बौद्धों की यह मान्यता तो ठीक है कि मोक्ष. अवस्था में विशुद्ध ज्ञान बना रहता है, किन्तु यह तभी संभव है जब चित्त सन्तति सान्वय हो । क्योंकि जो बद्ध है वही मुक्त होता है और ऐसा तभी संभव है जब चित्तसन्तति सान्वय हो । चित्तसन्तति को निरन्वय मानने पर तो बद्ध कोई होता है और मुक्त कोई दूसरा होता है । जिसने कर्मबन्ध किया था वह अन्य था और जो कर्ममुक्त हुआ है वह बद्ध से अन्य कोई दूसरा ही है । अतः चित्तसन्तति मानना आवश्यक है । ऐसा मानने पर ही मोक्ष में विशुद्ध ज्ञान की उत्पत्ति संभव है । यदि चित्तसन्तति शब्द में सन्तान शब्द का अर्थ वास्तविक है तो आत्मा ही सन्तान शब्द का वाच्य होगा । तब चित्तसन्तति और आत्मा दोनों पर्यायवाची ही सिद्ध होते हैं । यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मोक्ष में केवल विशुद्ध ज्ञान की ही सत्ता नहीं रहती है किन्तु इसके साथ अनन्त सुखादि की भी सत्ता रहती है। .. जैनदर्शन में मोक्ष जैनदर्शन में ज्ञानावरणादि अष्टं कर्मों के आत्यन्तिक क्षय का नाम मोक्ष है । कर्मों का क्षय कर्मबन्ध के हेतुओं का अभाव हो जाने से तथा निर्जरा से होता है । इसी विषय में तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । अर्थात् मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के पाँच हेतु हैं । जब सम्यग्दर्शनादि के द्वारा मिथ्यादर्शनादि का अभाव कर दिया जाता है तब मिथ्यादर्शनादि के द्वारा आने वाले कर्मों का आस्रव ( आगमन ) रुक जाता है । इसी का नाम संवर है । संवर के द्वारा नवीन कर्मों का आगमन रुक जाता है । तदनन्तर निर्जरा द्वारा पूर्व में संचित कर्मों का क्षय किया जाता है । यहाँ स्मरणीय है कि इसकी प्रक्रिया चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होती है और इसकी समाप्ति चौदहवें गुणस्थान में होती है । यही कारण है कि चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में यह जीव अष्ट कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर लोक के अग्रभाग में पहुँच कर वहाँ सिद्धशिला में स्थित हो जाता है । जीव का स्वभाव अनन्तज्ञानादिरूप है और यह स्वभाव
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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