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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११ नष्ट हो जाने पर केवलज्ञान प्राप्त करने वाला नर जीवनमुक्त कहलाता है । इसे अर्हन्त अवस्था कहते हैं । इसके कुछ समय बाद बचे हुए चार अंघातिया कर्मों का भी नाश हो जाता है । तब जीवनमुक्त जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है । इसी सर्वथा कर्ममुक्त अवस्था का नाम पूर्ण मोक्ष है ।
वेदान्तदर्शन में मोक्ष । पूर्वपक्ष
वेदान्तदर्शन में मोक्ष को आनन्दरूप माना गया है । अत्यन्त प्रियबुद्धि का विषय होने से आत्मा का स्वभाव आनन्दरूप है । और अनादिकालीन अविद्या के नाश से मोक्ष में आनन्दरूपता की अभिव्यक्ति होती है । कहा भी है- आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते । अर्थात् ब्रह्म का स्वरूप आनन्द है और मोक्ष में उसकी अभिव्यक्ति होती है । वेदान्तदर्शन में केवल ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता है और संसार के सब पदार्थ मायिक हैं । अर्थात् माया के कारण ही उनकी सत्ता प्रतीत होती है । नाना जीवों तथा ईश्वर की सत्ता भी माया ( अविद्या ) के कारण ही है । यथार्थ में एक ब्रह्म ही सत्य है । जब तक ब्रह्मज्ञान नहीं होता है तभी तक नाना जीवों की पृथक् सत्ता है और ब्रह्मज्ञान होते ही यह जीव अपनी पृथक् सत्ता को खोकर ब्रह्म में लीन हो जाता है । यही जीव का मोक्ष है । उत्तरपक्ष
वेदान्तदर्शन के अनुयायी वेदान्तियों का उक्त कथन कथंचित् सत्य हैं, सर्वथा नहीं । मोक्ष में आनन्द की अभिव्यक्ति मानना तो ठीक है किन्तु आत्मा का स्वभाव केवल आनन्द है और उसको प्राप्त करना ही मोक्ष है, ऐसा मानना ठीक नहीं है । आत्मा का स्वरूप केवल आनन्द ही नहीं है, आनन्द ( सुख ) के साथ ज्ञान-दर्शन भी आत्मा का स्वरूप है । मोक्ष में केवल आनन्द की ही प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु अनन्त सुख की प्राप्ति के साथ ही अनन्त ज्ञानादि की भी प्राप्ति होती है । मोक्ष में आनन्दरूपता की प्राप्ति अनादिकालीन अविद्या के नाश से होती है, यह कथन भी हमें अभीष्ट है । क्योंकि अष्ट प्रकार के कर्मरूप अनादिकालीन अविद्या का नाश हो