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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
मीमांसादर्शन में मोक्ष
पूर्वपक्ष
मीमांसादर्शन में दो प्रकार के कर्म बतलाये गये हैं- काम्य (करणीय ) कर्म और निषिद्ध ( अकरणीय) कर्म । जिसको स्वर्ग की इच्छा हो वह अग्निष्टोम यज्ञ करे ।'अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम:' । यह काम्य कर्म है । सुरा को न पियो, ब्राह्मण वध मत करो' इत्यादि निषिद्ध कर्म हैं । जिन कर्मों के करने का विधान है उनके न करने से प्रत्यवाय ( दोष ) होता है और जिन कर्मों के करने का निषेध है उनके करने से भी प्रत्यवाय होता है । इस प्रत्यवाय को दूर करने के लिए नित्य कर्म होमादि और नैमित्तिक कर्म ( विशेष अवसर पर किया जाने वाला अग्निष्टोमादि) का विधान किया गया है। यह भी बतलाया गया है कि मोक्षार्थी को काम्य और निषिद्ध कर्मों में प्रवृत्ति नहीं करना चाहिए ।
यहाँ मोक्ष को कैवल्य कहा गया है और कैवल्य की प्राप्ति का उपाय यह बतलाया है कि नित्य-नैमित्तिक अनुष्ठानों के द्वारा पाप का क्षय करता हुआ और अभ्यास से ज्ञान को विमल करता हुआ नर ज्ञान का परम प्रकर्ष हो जाने पर कैवल्य ( मोक्ष ) को प्राप्त करता है । इसी विषय में कहा गया है
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नित्यनैमित्तिके कुर्यात् प्रत्यवायजिहासया । मोक्षार्थी न प्रवर्तेत तत्र काम्यनिषिद्धयोः ॥ नित्यनैमित्तिकैरेव कुर्वाणो दुरतिक्षयम् । ज्ञानं च विमलीकुर्वन्नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥ अभ्यासात् पक्वविज्ञानः कैवल्यं लभते नरः । काम्ये निषिद्धे च परं प्रवृत्तिप्रतिषेधतः ॥
उत्तरपक्ष
मीमांसकों का मोक्षविषयक उक्त मत सर्वथा गलत नहीं है । इसमें कुछ सार तत्त्व अवश्य है । उन्होंने जो यह माना है कि केवलज्ञान की उत्पत्ति के पहले काम्य और निषिद्ध कर्मों ( क्रियाओं) का परिहार करके नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं का आचरण ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय में निमित्त होने से केवलज्ञान की प्राप्ति का हेतु होता है, वह हमारें अनुकूल है । परन्तु केवल कैवल्य का लाभ ही मोक्ष नहीं है । चार घातिया कर्मों के