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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११
प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान नहीं होता तभी तक संसार की स्थिति है । प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान के होते ही पुरुष प्रकृति के संसर्ग से उत्पन्न होने वाले सांसारिक दुःखों से छूट जाता है । वास्तव में बन्ध और मोक्ष प्रकृति के ही धर्म हैं, पुरुष के नहीं । पुरुष तो स्वभाव से बन्धरहित और मुक्त है । प्रकृति उस नर्तकी के समान है जो रंगस्थल में उपस्थित दर्शकों के सामने अपनी कला को दिखलाकर रंगस्थल से दूर हट जाती है । इसी प्रकार प्रकृति भी पुरुष को अपना व्यापार दिखलाकर पुरुष के सामने से हट जाती है । यथार्थ में प्रकृति से सुकुमार अन्य कोई दूसरा नहीं है । प्रकृति इतनी लज्जाशील है कि एक बार पुरुष के द्वारा यह प्रकृति दुष्ट है' इस रूप में देखे जाने पर वह पुनः पुरुष के सामने नहीं आती है । अर्थात् वह पुरुष से फिर संसर्ग नहीं करती है तथा पुरुष के प्रति व्यापार करने से विरत हो जाती है । प्रकृति को दुष्टरूप से देख लेने पर पुरुष भी उसकी उपेक्षा करने लगता है । अंतः प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान हो जाने पर पुरुष अपने चैतन्यमात्र स्वरूप में स्थित हो जाता है, यही मोक्ष है । इस दर्शन में अज्ञान से बन्ध तथा ज्ञान से मोक्ष माना गया है । सांख्यकारिका में कहा गया है: ज्ञानेन चापवर्गः: विपर्ययादिष्यते बन्धः । उत्तरपक्ष___ उक्त मत सर्वथा समीचीन नहीं है । इस मत में सबसे बड़ा दोष यह है कि पुरुष को चेतन मान कर भी ज्ञानरहित माना है और ज्ञान को अचेतन प्रकृति का धर्म माना गया है । अचेतन प्रकृति पुरुष के प्रति व्यापार कैसे करेगी ? अचेतन प्रकृति को यह ज्ञान कैसे होगा कि मैं पुरुष के द्वारा दुष्टरूप से जानी गई हूँ । अचेतन प्रकृति पुरुष के प्रति व्यापार करने से कैसे विरत होगी ? ज्ञान को प्रकृति का धर्म मानना भी सर्वथा गलत है । वास्तव में ज्ञान तो चेतन का धर्म है, अचेतन का नहीं । चेतन पुरुष को ज्ञान का स्वसंवेदन होता है किन्तु अचेतन घटादि को ज्ञान का कभी भी स्वसंवदेन नहीं होता है । इससे यही सिद्ध होता है कि ज्ञान चेतन पुरुष का ही धर्म है । पुरुष का स्वरूप चैतन्यमात्र नहीं है, किन्तु अनन्तज्ञानादिसम्पन्न चैतन्यविशेष पुरुष का वास्तविक स्वरूप है । और इस अनन्तज्ञानदर्शनादिसम्पन्न चैतन्यविशेष में पुरुष के स्थित हो जाने का नाम मोक्ष है ।