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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ....
तक उचित है ? मोक्ष में दुःख, इच्छा, द्वेष आदि का अभाव मानना तो उचित है, किन्तु यदि मोक्ष में ज्ञान और सुख का भी अभाव हो जाता है तो वहाँ आत्मा का कौनसा स्वरूप शेष रह जाता है ? तत्त्वज्ञान के द्वारा क्रमश: मिथ्याज्ञानादि की निवृत्ति हो जाने पर धर्माधर्म और उसके कार्य शरीरादि के नहीं होने पर भी मोक्ष में अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखादि का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है । यह कथन भी ठीक नहीं है कि प्रारब्ध कर्मों का क्षय उपभोग से होता है । क्योंकि कर्मफल के उपभोग के समय नवीन कर्म के आगमन के निमित्तभूत मन, वचन और काय का व्यापार होने के कारण नवीन कर्मों का आस्रव कैसे रुकेगा और संचित कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कैसे होगा ? 'यथैधांसि समिद्धोऽग्निः' इत्यादि जो कहा है वह भी तभी ठीक है जब संवररूप चारित्र से वृद्धिंगत सम्यग्ज्ञानरूप अग्नि का सकलकर्मक्षय में सामर्थ्य माना जावे । संसार के कारण मिथ्यादर्शनादि तीन हैं, केवल मिथ्याज्ञान नहीं । केवल सम्यग्ज्ञान से मिथ्यादर्शनादि तीन की निवृत्ति नहीं हो सकती है । अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की पूर्णता ही मोक्ष का मार्ग है और अनन्तज्ञान, सुखादि की उपलब्धि ही मोक्ष है । __ नैयायिक-वैशेषिक ने जैसा मोक्ष माना है वैसा मोक्ष तो कोई स्वप्न में भी प्राप्त करना नहीं चाहेगा । किसी वैष्णव दार्शनिक ने नैयायिक-वैशेषिकों द्वारा अभिमत मोक्ष के विषय में उपहास करते हुए कहा है
वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम् । .
वैशेषिकोक्तमोक्षात् सुखलेशविवर्जितात् ॥ अर्थात् मुझे शृगाल बनकर वृन्दावन के सरस निकुंजों में जीवन बिताना स्वीकार है, परन्तु में वैशेषिक दर्शन की सुखरहित मुक्ति को नहीं चाहता
सांख्यदर्शन में मोक्ष पूर्वपक्ष
सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान हो जाने पर पुरुष का अपने चैतन्यमात्र स्वरूप में अवस्थान हो जाने का नाम मोक्ष है । इस दर्शन में प्रकृति और पुरुष के संसर्ग का नाम ही संसार है । जब तक