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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन एक साथ मिलकर तभी कार्य कर सकते हैं जब वे एक दूसरे में कोई अतिशय उत्पन्न करें । किन्तु दोनों के नित्य होने से उनमें अतिशय उत्पन्न नहीं हो सकता है । एक प्रश्न यह भी है कि यदि वे दोनों एक साथ मिलकर कार्य करते हैं तो सब कार्यों को एक ही समय में क्यों नहीं उत्पन्न कर देते हैं ? इस दोष को दूर करने के लिए सेश्वरसांख्य का कहना है कि प्रधान में पाये जाने वाले सत्त्व आदि तीन गुण कार्य की उत्पत्ति में सहकारी कारण होते हैं और ये गुण क्रमवर्ती हैं । अतः कार्य भी क्रम से ही होते हैं । जब ईश्वर को रजोगुण की सहायता मिलती है तब वह सृष्टि करता है, जब उसको सत्त्वगुण की सहायता मिलती है तब उसकी स्थिति करता है और जब ईश्वर को तमोगुण की सहायता मिलती है तब वह सर्व जगत् का प्रलय करता है। इस कथन में भी अनेक दोष पाये जाते हैं । यहाँ हम पूछेगे कि जब प्रधान और ईश्वर सर्ग, स्थिति और प्रलय इनमें से किसी एक कार्य को करते हैं तब उनमें शेष दो कार्यों के करने की शक्ति रहती है या नहीं । यदि शक्ति रहती है तो सृष्टिकाल में भी स्थिति और प्रलय का प्रसंग प्राप्त होता है । इसीप्रकार स्थितिकाल में उत्पाद और विनाश का तथा विनाशकाल में स्थिति और उत्पाद का प्रसंग बना ही रहता है । यदि एक कार्य करने के समय उनमें शेष दो कार्यों के करने की शक्ति नहीं है तो हम यह भी कहेंगे कि उसी एक कार्य को ही सदा होना चाहिए और शेष दो कार्यों की उत्पत्ति कभी नहीं होना चाहिए । क्योंकि उनके उत्पादन में उनकी शक्ति ही नहीं है । इस प्रकार सेश्वरसांख्य मत निरस्त हो जाता है। मोक्षस्वरूपविचार प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने मोक्ष को माना है, किन्तु मोक्ष के स्वरूप और कारणों के विषय में प्रत्येक दर्शन का मत भिन्न-भिन्न है ।अब यहाँ इसी बात पर विचार किया जा रहा है । न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष .. पूर्वपक्ष न्यायदर्शन में दुःख के अत्यन्त विमोक्ष को मोक्ष कहा गया है और
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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