________________
७९
द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११ प्राप्त होता है । कार्य द्रव्यरूप से सत् है और पर्यायरूप से असत् है । इसलिए सत् मिट्टी से असत् घटादि पर्यायों की उत्पत्ति होती है, ऐसा जैनमत है।
सांख्यों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि कारण कार्य की उत्पत्ति न करके उसकी अभिव्यक्ति करते हैं । क्योंकि यहाँ भी प्रश्न उपस्थित होता है कि अभिव्यक्ति सत् है या असत् । यदि अभिव्यक्ति सत् है तो वह कैसे की जा सकती है, वह तो पहले से ही है । अभिव्यक्ति को असत् मानने पर भी वही दोष आता है कि आकाशकुसुम की तरह अभिव्यक्ति को किया ही नहीं जा सकता है । इस प्रकार अभिव्यक्तिपक्ष दूषित हो जाता है । सत्कार्यवाद को मानने के कारण सांख्य उत्पत्ति को आविर्भाव
और विनाश को तिरोभाव कहते हैं । किन्तु ये दोनों बातें भी असंगत हैं । जब तक वस्तु में पूर्वपर्याय का त्याग और उत्तरपर्याय की उत्पत्ति नहीं होगी तब तक आविर्भाव और तिरोभाव भी नहीं बन सकता है । पूर्व पर्याय का त्याग और उत्तर पर्याय की उत्पत्ति मानने पर सांख्यों को जैनमत का प्रसंग अनिवार्य है । साख्यों ने भेदानां परिमाणात्' इत्यादि हेतुओं से सब पदार्थों का एकमात्र कारण प्रधान की जो सिद्धि की है वह भी तर्कसंगत नहीं है । क्योंकि उक्त हेतुओं का अविनाभाव एक कारण के साथ सिद्ध नहीं होता है । घट-पटादि कार्यों को अनेक कारणपूर्वक होने में कोई विरोध भी नहीं है । इस प्रकार प्रकृति में सकल जगत् का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता है ।
सांख्यदर्शन में अचेतन प्रकृति में ज्ञान, बन्ध, मोक्ष आदि मानना तथा चेतन पुरुष में ज्ञान, बन्ध, मोक्ष आदि नहीं मानना कितना हास्यास्पद है । प्रकृति को कर्जी और पुरुष को केवल भोक्ता मानना, पुरुष को चेतन मानकर भी ज्ञान गुण से रहित मानना सर्वथा गलत है । यथार्थ में पुरुष कर्ता
और भोक्ता दोनों है । पुरुष ही कर्मबन्ध का कर्ता है और पुरुष ही कर्मबन्ध काटकर मोक्ष प्राप्त करता है । ऐसा जैनदर्शन का अकाट्य सिद्धान्त है । .. सेश्वरसांख्यमत में ईश्वर प्रधान की अपेक्षा से सृष्टि के समस्त कार्यों का कर्ता माना गया है । अकेला प्रधान और अकेला ईश्वर कार्य करने में समर्थ नहीं है । परन्तु दोनों परस्पर सापेक्ष होकर कार्य करते हैं । सेश्वरसांख्य का उक्त कथन तर्कसंगत नहीं है । जब प्रधान और ईश्वर में पृथक् पृथक् कर्तृत्व नहीं बनता है तब दोनों मिलकर भी कर्ता नहीं हो सकते हैं । दोनों