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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .
सर्वथा अभिन्न होने के कारण महत् आदि प्रधान के कार्य नहीं हैं । इसी प्रकार महत् आदि से अभिन्न होने के कारण ही प्रधान महत् आदि कार्यों का कारण नहीं हो सकता है । इसलिए मूल प्रकृति को कारण मानना, पाँच भूतों और ग्यारह इन्द्रियों को कार्य ही मानना तथा बुद्धि, अहंकार और पाँच तन्मात्राओं को कारण और कार्य दोनों मानना, यह सब सिद्ध नहीं हो सकता है । एक बात यह भी है कि दो पदार्थों में कार्यकारणभाव का ज्ञान अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा ही होता है । किन्तु प्रधान से महत् आदि की उत्पत्ति का निश्चायक अन्वय-व्यतिरेक किसी प्रमाण से ज्ञात न होने के कारण प्रधान और महदादि में कार्यकारणभाव सिद्ध नहीं होता है । जो पदार्थ सर्वथा नित्य है उसमें किसी के प्रति कारणभाव हो भी नहीं सकता है । क्योंकि सर्वथा नित्य प्रधान न तो क्रम से कार्य कर सकता है और न अक्रम से । दोनों ही पक्षों में अनेक दोष आने के कारण सर्वथा नित्य वस्तु क्रम से या अक्रम से कार्य नहीं कर सकती है । इस दोष को दूर करने के लिए यदि सांख्य प्रकृति में परिणमन स्वीकार करते हैं तो प्रकृति में सर्वथा नित्यत्व के व्याघात का प्रसंग आता है, जो सांख्यों को अनिष्ट है । . - सांख्य ने सत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए जो पाँच हेतु दिये हैं वे असत्कार्यवाद में भी दिये जा सकते हैं । हम कह सकते हैं
न सदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ यहाँ 'न' शब्द का अन्वय 'सत्कार्यम्' के साथ है । अर्थात् कार्य सत् नहीं है किन्तु असत् है । क्योंकि जो सत् है उसको करना तो व्यर्थ ही है, वह तो पहले से ही विद्यमान है । इत्यादि प्रकार से सत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए उक्त पाँचों हेतुओं के द्वारा हम असत्कार्यवाद को भी सिद्ध कर सकते हैं । सत्कार्यवाद के सिद्धान्त में प्रश्न किया जा सकता है कि कार्य सर्वथा सत् है या कथंचित् । प्रथम विकल्प ठीक नहीं है । यदि क्षीर में दधि सर्वथा सत् है तो फिर दधि के उत्पादक कारणों द्वारा क्षीर से किस वस्तु की उत्पत्ति की जाती है । उसमें दधि तो पहले से ही विद्यमान है । अत: जो सब प्रकार से सत् होता है वह किसी से जन्य नहीं होता है, जैसे प्रधान । अब यदि कार्य को कथंचित् सत् माना जावे तो जैनमत का प्रसंग