________________
७७
द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११ असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ (१) जो असत् है उसको कोई उत्पन्न नहीं करता है । (२) घट, पट आदि प्रत्येक कार्य के लिए प्रतिनियत उपादान का ग्रहण किया जाता है । जैसे तेल की उत्पत्ति के लिए तिलों का ही ग्रहण किया जाता है, बालुका का नहीं । (३) सब कारणों से सब कार्यों की उत्पत्ति संभव नहीं है । जैसे तृण, बालुका, लोष्ठ आदि से रजत, सुवर्ण आदि की उत्पत्ति नहीं हो सकती है । (४) समर्थ कारण से ही समर्थ कार्य की उत्पत्ति देखी जाती है, असमर्थ से नहीं । जैसे तन्तुओं से ही पट की उत्पत्ति होती है, तृण से नही । (५) यह भी देखा जाता है कि कारण जैसा होता है कार्य भी वैसा ही होता है । गेंहूँ के बीज से गेहूँ की ही उत्पत्ति होती है, धान की नहीं । अतः उपर्युक्त हेतुओं से यह सिद्ध होता है कि वस्त्र उत्पन्न होने से पहले तन्तुओं में विद्यमान रहता है और घट उत्पन्न होने से पहले मिट्टी में विद्यमान रहता है । यही सत्कार्यवाद है । सेश्वरसांख्य- .. ... सांख्यदर्शन के अन्तर्गत एक और विशेष मत है जिसे सेश्वरसांख्य कहते हैं । इसे योगदर्शन भी कहते हैं । इसकी विशेषता यह है कि उक्त २५ तत्त्वों के अतिरिक्त इसमें एक ईश्वर भी माना गया है । इस कारण इसको सेश्वरसांख्य कहते हैं । इसकी मान्यता है कि अचेतन होने के कारण प्रधान चेतन अधिष्ठाता के बिना महत् आदि कार्यों की उत्पत्ति नहीं कर सकता है । इसलिए ईश्वर ही प्रधान की सहायता से सृष्टि के कार्यों को करता है । यह ईश्वर अनादिमुक्त है । उत्तरपक्ष
सांख्य ने प्रकृति के द्वारा जो सृष्टिक्रम बतलाया है वह युक्तिसंगत नहीं है । प्रकृति से महत् आदि २३ तत्त्वों की उत्पत्ति बतलाई गई है । किन्तु महत् आदि प्रकृति रूप ही हैं, प्रकृति से भिन्न नहीं । दूसरे शब्दों में महत् आदि प्रकृति से अव्यतिरिक्त हैं । तब उनमें कार्यकारणभाव नहीं बन सकता है । क्योंकि जो जिससे सर्वथा अव्यतिरिक्त होता है वह उसका कार्य अथवा कारण नहीं हो सकता है । हम कह सकते हैं कि प्रधान से