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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन. विकृति माने गये हैं । किन्तु ग्यारह इन्द्रियाँ और पाँच भूत ये १६ तत्त्व केवल विकृति ( विकार ) हैं । ये दूसरे तत्त्वों से उत्पन्न तो होते हैं किन्तु किसी अन्य तत्त्व को उत्पन्न नहीं करते हैं । पुरुष तत्त्व___ इन सबसे विलक्षण एक पुरुष तत्त्व है जो न प्रकृति है और न विकृति है । वह न तो किसी से उत्पन्न होता है और न किसी को उत्पन्न करता है । वह चेतन है किन्तु ज्ञान गुण से रहित है । पुरुष अनेक, व्यापक, अपरिणामी, निष्क्रिय, अकर्ता, भोक्ता और दृष्टामात्र है । सांख्यदर्शन में एक विशेष बात यह है कि ज्ञान प्रकृति का धर्म है, पुरुष का नहीं । प्रकृति की है और पुरुष भोक्ता है ।शुक्ल ( पुण्य ) कर्म और कृष्ण ( पाप ) कर्म प्रकृति के ही परिणाम हैं । बन्ध और मोक्ष प्रकृति के ही होते हैं, पुरुष के नहीं। सर्वज्ञत्व प्रकृति का ही धर्म है, पुरुष का नहीं । प्रकृति की सिद्धि निम्नलिखित पाँच हेतुओं से की गई है
भेदानां परिणामात् समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्च ।
कारणकार्यविभागादविभागाद्वैश्वरूपस्य ॥ (१) संसार के समस्त पदार्थों में परिमाण पाया जाता है । (२) उनमें सत्त्व आदि गुणों का समन्वय पाया जाता है । (३) कारण की शक्ति से ही कार्य में प्रवृत्ति होती है । (४) कारण और कार्य का विभाग देखा जाता है । (५) तथा प्रलय काल में कार्य का उसी कारण में विलय देखा जाता है । अतः अपरिमित, व्यापक और स्वतंत्र मूल कारण प्रकृति को मानना आवश्यक है। सत्कार्यवाद
सांख्यदर्शन का एक विशेष सिद्धान्त यह है कि यहाँ घटादि कार्य को सत् माना गया है, असत् नहीं । सांख्य उत्पत्ति को आविर्भाव ( प्रकट होना ) और विनाश को तिरोभाव ( छिप जाना ) कहते हैं । मृत्पिण्ड में घट पहले से विद्यमान रहता है और कुंभकार के द्वारा घट का केवल आविर्भाव किया जाता है, उत्पत्ति नहीं । इसीप्रकार दण्ड के प्रहार द्वारा घट का केवल तिरोभाव किया जाता है, विनाश नहीं । सांख्य ने निम्नलिखित पाँच युक्तियों से सत्कार्यवाद की सिद्धि की है