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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११
___७५ उपरिलिखित सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि ईश्वर में अशेष जगत् के कर्तृत्व का साधक कोई निर्दोष प्रमाण नहीं होने के कारण न तो वह सृष्टिकर्ता है, न सर्वज्ञ है और न अनादिमुक्त है ।
प्रकृतिकर्तृत्वविचार पूर्वपक्ष
सांख्यदर्शन के अनुसार मूल तत्त्व दो हैं-प्रकृति और पुरुष । प्रकृति को प्रधान भी कहते हैं । प्रकृति एक अचेतन तथा त्रिगुणात्मक है । सत्त्व, रज और तम ये तीन प्रकृति के गुण हैं । सांख्यों की मान्यता है कि प्रकृति से ही सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होती है । प्रकृति के द्वारा जगत् की सृष्टि का जो क्रम है वह इस प्रकार है
प्रकृतेर्महान् ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः ।
तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥ अर्थात् सबसे पहले प्रकृति से महत् ( बुद्धि ) तत्त्व की उत्पत्ति होती है । महत् से अहंकार की उत्पत्ति होती है । मैं सुभग हूँ, दर्शनीय हूँ इत्यादि प्रकार से अहंकर अभिमान रूप होता है । अहंकार से सोलह तत्त्वों की उत्पत्ति होती है जो इस प्रकार हैं-स्पर्शनादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, वाक्, पाणि आदि पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन ये ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पाँच तन्मात्रायें । और अन्त में पाँच तन्मात्राओं द्वारा पाँच भूतों की उत्पत्ति होती है जो इस प्रकार है-शब्द से आकाश की, स्पर्श से वायु की, रूप से अग्नि की, रस से जल की तथा गन्ध से पृथिवी की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार सांख्यदर्शन में प्रकृति से २३ तत्त्वों की उत्पत्ति होती है. । इनमें प्रकृति और पुरुष को मिलाकर सांख्यदर्शन में कुल २५ तत्त्व माने गये हैं। - प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं और महत् आदि २३ तत्त्वों को व्यक्त कहते हैं । मूल प्रकृति को विकार रहित माना गया है । अर्थात् प्रकृति अन्य तत्त्वों को तो उत्पन्न करती है, किन्तु वह अन्य किसी तत्त्व से उत्पन्न नहीं होती है । महत्, अहंकार और पाँच मन्त्रायें ये सात तत्त्व प्रकृति और . विकृति दोनों कहलाते हैं । ये तत्त्व दूसरे तत्त्वों को उत्पन्न करने के कारण प्रकृति कहलाते हैं और ये तत्त्व स्वयं दूसरे तत्त्वों से उत्पन्न होने के कारण