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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
यह भी कह सकते हैं कि धर्माधर्म के फल को भोगने वाले प्राणी ही अदृष्ट की सहायता से सुख-दुःख दायक शरीरादि के उत्पादक होते हैं । अतः इसके लिए अप्रत्यक्ष ईश्वर की कल्पना करने से कोई लाभ नहीं है ।
नैयायिक कहते हैं कि जिस प्रकार किसी महाप्रासाद के निर्माण करने में किसी एक सूत्रधार से नियंत्रित होकर अनेक कारीगर काम करते हैं, उसी प्रकार एक ईश्वर से नियंत्रित होकर प्राणी सुखादि अनेक कार्यों को करते हैं ।
उनका ऐसा कथन समीचीन नहीं है । ऐसा कोई नियम नहीं है कि सम्पूर्ण कार्यों का कर्ता कोई एक ही व्यक्ति हो । तथा ऐसा भी कोई नियम नहीं हैं कि अनेक व्यक्ति किसी एक सूत्रधार से नियंत्रित होकर ही कार्य करें । वास्तव में कार्यकर्तृत्व अनेक प्रकार से देखा जाता है । कहीं एक व्यक्ति एक कार्य का कर्ता होता है । जैसे जुलाहा पट का कर्ता होता है । कहीं एक ही पुरुष अनेक कार्यों का कर्ता होता है । जैसे कुंभकार घट, सुराही, सकोरा आदि अनेक कार्यों का कर्ता है । कहीं अनेक पुरुष मिलकर एक कार्य को करते हैं । जैसे अनेक पुरुष मिलकर शिविका को ढोते हैं । यह भी आवश्यक नहीं है किसी महाप्रासाद के निर्माण में अनेक कारीगर एक अधिष्ठाता से नियंत्रित होकर ही कार्य करें । वे स्वतंत्ररूप से भी अपने अपने विभाग का काम कर सकते हैं ।
यहाँ एक प्रश्न यह है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर एक ही समय में सब कार्यों को क्यों नहीं कर देता है ? इसका उत्तर नैयायिकों द्वारा यह दिया जाता है कि जब उसे सहकारी. कारण मिलते हैं तब वह कार्य करता है और सहकारी कारणों के अभाव में कार्य नहीं करता है । इस पर हमारा कहना यह है कि सहकारी कारणों की उत्पत्ति भी तो ईश्वर के अधीन है । तब वह सब सहकारी कारणों की उत्पत्ति एक साथ क्यों नहीं कर लेता । नैयायिकों के द्वारा जो यह कहा गया है कि पृथिवी आदि महाभूतरूप कार्य चेतनाधिष्ठित होकर ही प्राणियों के सुख-दुःखादि में निमित्त होते हैं, वह भी असंगत है । क्योंकि जिस प्रकार का चेतनाधिष्ठित रूपादिमत्त्व तथा अनित्यत्व तुरी, वास्य आदि में देखा जाता है वैसा क्षित्यादि में दृष्टिगोचर नहीं होता है । इत्यादि प्रकार से विचार करने पर ईश्वर में सृष्टिकर्तृत्व सिद्ध नहीं होता