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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११ उत्पत्ति करते हैं । इसी प्रकार क्षित्यादि की उत्पत्ति में परमाणु आदि अचेतन कारणों का अधिष्ठाता ईश्वर होता है । यहाँ हम नैयायिकों से कहेंगे कि अचेतन की तरह चेतन भी तो चेतनान्तर ( दूसरे चेतन ) से अधिष्ठित होकर कार्य में प्रवृत्ति करता है । जैसे शिविका ( पालकी ) को ढोने वाले लोग दूसरे चेतन से अधिष्ठित होकर अपना काम करते हैं । इसी प्रकार ईश्वर का अधिष्ठाता भी कोई चेतनान्तर होना चाहिए।
नैयायिक मानते हैं कि क्षित्यादि कार्यों में बुद्धिमत्कारण का अनुमान किया जाता है । इस विषय में हमारा कहना है कि कार्यमात्र से तो कारणमात्र का अनुमान होता है, बुद्धिमत्कारण का नहीं । क्योंकि कार्यत्व की व्याप्ति बुद्धिमत्कारण के साथ नहीं है । अतः क्षित्यादि का कर्ता अनीश्वर और असर्वज्ञ भी हो सकता है । ऐसे ही कर्ता की घटादि में व्याप्ति सिद्ध है । अखिल कार्यों को करने के कारण ईश्वर में सर्वज्ञता मानना भी ठीक नहीं है । क्योंकि अखिल कार्यों को करने वाले एक कर्ता की सिद्धि करने वाला कोई प्रमाण नहीं है । तथा विश्वतश्चक्षः' इत्यादि आगम से भी ईश्वर में सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती है । ईश्वर के चारों ओर चक्षु हैं, चारों ओर मुख हैं, इत्यादि मानने में अनेक दोष आते हैं । नैयायिकों का यह कहना भी सर्वथा असंगत है कि ईश्वर करुणा के कारण प्राणियों के शरीर आदि की रचना में प्रवृत्त होता है । यदि ऐसा है तो सुखदायक शरीर आदि की ही रचना होना चाहिए, दु:खदायक शरीरादि की नहीं । जो करुणावान् है वह प्राणियों को दुःख देने वाले साधनों का निर्माण क्यों करेगा । धर्माधर्म ( पुण्य-पाप ) की सहायता से कार्य करने वाले ईश्वर को दु:खदायक शरीरादि की रचना करने वाला मानना उचित नहीं है । क्योंकि धर्म और अधर्म की उत्पत्ति भी तो ईश्वर के द्वारा ही हुई है । ईश्वर ने धर्म और अधर्म को बनाया ही क्यों ? ऐसा कहना भी उचित नहीं है कि धर्म और अधर्म के फल का उपभोग कर लेने पर उनका क्षय हो जाता है और तदनन्तर प्राणियों को अपवर्ग ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है । ईश्वर ने पहले धर्म और अधर्म का उत्पादन किया, फिर उनका क्षय किया, इससे क्या लाभ हुआ । यह तो वैसा ही काम हुआ कि किसी ने पहले गड्ढा खोदा और पुनः उसको . भर दिया । यदि ईश्वर की प्रवृत्ति अपवर्ग के विधान के लिए होती है तो वह प्राणियों के अपूर्व कर्मों के संचय में निमित्त क्यों बनता है । यहाँ हम