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________________ .७२ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . तो इस विषय में हम यही कहेंगे कि हम लोगों की तरह ईश्वर की बुद्धि भी क्षणिक है । ईश्वर की बुद्धि अक्षणिक है और हमारी बुद्धि क्षणिक है, इसका हेतु क्या है । इस विषयमें नैयायिकों का कहना है कि हम लोगों की बुद्धि में क्षणिकतारूप विशेषता को और ईश्वर की बुद्धि में अक्षणिकतारूप विशेषता को मानना आवश्यक है । ऐसा मानने में ही ईश्वर का ईश्वरत्व है । यदि ऐसा है तो हम भी यह कह सकते हैं कि घटादि कार्य कर्ता के द्वारा होते हैं और क्षित्यादि कार्य कर्ता के बिना ही हो जाते हैं, ऐसा मानने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ___ हम यह मान भी लें कि प्रत्येक कार्य बुद्धिमत्कारणपूर्वक होता है, फिर भी यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि नवीन कूप, प्रासाद आदि में जिस प्रकार का बुद्धिमत्कारणपूर्वक कार्यत्व देखा जाता है उस प्रकार का बुद्धिमत्कारणपूर्वक कार्यत्व क्षित्यादि कार्यों में क्यों दृष्टिगोचर नहीं होता है । हम लोगों ने जीर्ण कूप, प्रासाद आदि के निर्माण कार्य को नहीं देखा है, फिर भी उनमें हमको कृतबुद्धि होती है कि इनका निर्माण किसी ने किया है । परन्तु क्षित्यादि कार्यों में हम लोगों को कृतबुद्धि कभी होती ही नहीं है । यहाँ यह भी विचारणीय है कि शरीरसहित होने के कारण ही कुंभकार में घटकर्तृत्व देखा जाता है । इसी प्रकार ईश्वर को भी शरीर सहित मानना चाहिए । तभी उसको क्षित्यादि कार्यों का कर्ता मानना संगत होगा । और ईश्वर को सशरीर मानने पर कुंभकारादि की तरह दृश्य भी मानना पड़ेगा। नैयायिकों ने जो यह कहा है कि कर्तृत्व का आधार ज्ञान, चिकीर्षा और प्रयत्न है, सशरीरता या अशरीरता नहीं । उनका उक्त कथन भी ठीक नहीं है । यदि ईश्वर शरीररहित है तो कर्तृत्व का आधार ज्ञानादि भी उसमें नहीं बनेंगे । क्योंकि इनकी उत्पत्ति में आत्मा समवायी कारण है, आत्ममनःसंयोग असमवायी कारण है और शरीरादि निमित्त कारण हैं । इन कारणों के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है । यदि निमित्त कारण शरीर के बिना भी ज्ञान आदि की उत्पत्ति मानी जावे तो बुद्धिमान कारण के बिना भी क्षित्यादि की उत्पत्ति मान लीजिए । नैयायिकों का कथन है कि अचेतन कारण चेतन से अधिष्ठित होकर ही कार्य की उत्पत्ति करते हैं । जैसे दण्ड, चक्र आदि कुंभकार से अधिष्ठित होकर ही घट की
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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