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________________ द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११ ७१ साथ रहना अथवा अवयवों द्वारा उत्पन्न होना, इत्यादि विकल्पों द्वारा सावयवत्व हेतु को सदोष बतलाया गयाहै । गोत्वादि सामान्य अपने अवयवों के साथ रहता है, परन्तु वह कार्य नहीं है । उसे तो न्यायदर्शन में नित्य माना गया है । पृथिवी आदि कार्य अपने अवयव परमाणु आदि से उत्पन्न होने के कारण सावयव हैं, ऐसा मानने पर यह कहा जा सकता है कि परमाणु आदि अवयवों की सिद्धि प्रत्यक्ष से तो होती नहीं है, तब क्षित्यादि परमाणुओं से उत्पन्न होते हैं, इसको भी कैसे सिद्ध करेंगे । अतः सावयवत्व की सिद्धि न होने पर उसके द्वारा क्षित्यादि में कार्यत्व की सिद्धि भी नहीं हो सकेगी। ___ यहाँ नैयायिकों से यह पूछा जा सकता है कि क्षित्यादि में कार्यत्व सर्वथा है या कथंचित् । सर्वथा कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा से सब पदार्थ अकार्य हैं । उनमें कथंचित् कार्यत्व मानने पर यह भी मानना पड़ेगा कि उनका कर्ता कथंचित् बुद्धिमान् है, सर्वथा नहीं । नैयायिकों ने क्षित्यादि कार्यों के कर्ता को बुद्धिमान् माना है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि बुद्धिमान् से बुद्धि भिन्न है या अभिन्न । बुद्धि को बुद्धिमान् से भिन्न मानने पर यह बुद्धि उसकी है, आकाशादि की नहीं, इसका निश्चय कैसे होगा । बुद्धि को आत्मा से अभिन्न मानने पर आत्मामात्र अथवा बुद्धिमात्र का ही अस्तित्व रहेगा, दोनों का नहीं । यह भी प्रश्न है कि उसकी बुद्धि क्षणिक है या अक्षणिक । यदि बुद्धि क्षणिक है तो द्वितीय क्षण में उसका प्रादुर्भाव कैसे होगा । किसी कार्य का प्रादुर्भाव समवायी आदि तीन कारणों से होता है । ईश्वर में बुद्धि के उत्पादक असमवायी कारण आत्ममनःसंयोग और निमित्त कारण शरीरादिक नहीं हैं । तब ईश्वर में द्वितीय आदि क्षणों में बुद्धि कैसे उत्पन्न होगी। ___ यहाँ नैयायिक कहते हैं कि यह सत्य है कि हम लोगों की बुद्धि समवायादि तीन कारणों के होने पर ही होती है, किन्तु ईश्वर की बुद्धि हम लोगों की बुद्धि से विलक्षण है । अतः वह समवायादि तीन कारणों के अभाव में भी उत्पन्न हो जाती है । यदि ऐसा है तो यहाँ हम कह सकते हैं किं क्षित्यादिक कार्य भी घटादि कार्यों से विलक्षण हैं । इसलिए क्षित्यादिक की उत्पत्ति बुद्धिमान् कारण के बिना मान लेने में क्या आपत्ति है । इस दोष से बचने के लिए यदि नैयायिक ईश्वर की बुद्धि को अक्षणिक मान लेते हैं
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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