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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . है उसी के अनुसार वह उसी प्रकार के फल का उपभोग करने के लिए . शरीरादि की रचना करता है । क्योंकि फल के उपभोग के बिना अदृष्ट का क्षय नहीं होता है और अदृष्ट के क्षय के बिना अपवर्ग ( मोक्ष ) भी नहीं मिल सकता है । यहाँ यह कहना भी ठीक नहीं है कि प्राणियों के अदृष्ट से ही सब कार्य उत्पन्न हो जायेंगे, ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता है । इस विषय में नैयायिकों का कहना है कि केवल अदृष्ट से ही सब कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते हैं । क्योंकि अचेतन होने से अदृष्ट को भी एक चेतन अधिष्ठाता की आवश्यकता होती है और जो अचेतन कारणों का अधिष्ठाता है वही ईश्वर है । संसारी प्राणियों की आत्मा अचेतन कारणों का अधिष्ठाता नहीं हो सकता है । क्योंकि अल्पज्ञ होने से उसको अदृष्ट, परमाणु आदि कारणों का ज्ञान संभव नहीं है । अतः तनु, करण, भुवनादि कार्यों के जो भी उपादान कारण हैं वे चेतनाधिष्ठित होकर ही अपना कार्य करते हैं । न्यायवार्तिककार उद्योतकर ने इस विषय में न्यायवार्तिक में बतलाया है--
महाभूतादिव्यक्तं चेतनाधिष्ठितं प्राणिनां सुख दुःखादिनिमित्तं रूपादिमत्त्वात् तुर्यादिवत् ।तथा पृथिव्यादीनि महाभूतानि बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितानि स्वासु धारणाद्यासु क्रियासु प्रवर्तन्ते अनित्यत्वात् वास्यादिवत् । अर्थात् पृथिवी आदि महाभूतरूप कार्य चेतन से अधिष्ठित होकर ही प्राणियों के सुख-दुःखादि में निमित्त होते हैं, रूपादिमान् होने से, तुरी ( कपड़ा बुनने का एक औजार ) आदि की तरह । तथा पृथिवी आदि महाभूत बुद्धिमान् कारण से अधिष्ठित होकर ही धारण आदि अपने कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं, अनित्य होने से, वास्य ( वसूला ) आदि की तरह । तुरी, वास्य आदि चेतन से अधिष्ठित हुए बिना अपना काम नहीं कर सकते हैं । अतः सब अचेतन कारण ईश्वर से अधिष्ठित होकर ही अपना काम करते हैं । इस प्रकार से नैयायिकों ने ईश्वर में सृष्टिकर्तृत्व की सिद्धि की है । उत्तरपक्ष
नैयायिक-वैशेषिकों ने ईश्वर में सृष्टिकर्तृत्व सिद्ध करने के लिए जो कुछ कहा है वह तर्कसंगत नहीं है । उन्होंने सावयवत्व हेतु से क्षित्यादि में कार्यत्व की सिद्धि की है और कार्यत्व हेतु से ईश्वर में सृष्टिकर्तृत्व की सिद्धि की गई है । किन्तु जब हम सावयवत्व और कार्यत्व हेतु का विचार करते हैं तो इनमें अनेक दोष आते हैं । सावयवत्व क्या है ? अवयवों के