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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ११
है । यहाँ तीन विकल्प संभव हैं-सर्वज्ञ प्रणीत आगम, अन्यप्रणीत आगम
और अपौरुषेय आगम । इनमें से सर्वज्ञ प्रणीत आगम से तो सर्वज्ञ का सद्भाव ही सिद्ध होता है । अन्य प्रणीत आगम तो रथ्यापुरुष के वाक्य की तरह प्रमाण ही नहीं है । तब उसके द्वारा सर्वज्ञ का अभाव कैसे सिद्ध होगा ? यदि अपौरुषेय आगम वेद जैमिनी आदि के लिए सर्वज्ञाभाव का प्रतिपादन करता है तो हम सब के लिए भी वैसा ही करना चाहिए, किन्तु ऐसा है नहीं । सर्वज्ञाभाव बतलाने वाला कोई वेदवाक्य भी दृष्टिगोचर नहीं होता है । इसलिए आगम से सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है । उपमान प्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं होता है । क्योंकि उपमान और उपमेय का प्रत्यक्ष होने पर उनमें सादृश्य के कारण उपमान की प्रवृत्ति होती है । इस समय उपमानभूत और उपमेयभूत सब पुरुषों का प्रत्यक्ष तो किसी को होता नहीं है । यदि ऐसा होता तो यह कहा जा सकता है कि जैसे ये पुरुष सर्वज्ञ नहीं हैं वैसे ही अन्य पुरुष भी सर्वज्ञ नहीं हैं । अत: उपमान प्रमाण सर्वज्ञाभाव का साधक नहीं है । अर्थापत्ति भी सर्वज्ञाभाव को सिद्ध करने में असमर्थ है । क्योंकि ऐसा कोई पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है जो सर्वज्ञाभाव के बिना न होता हो । अभाव प्रमाण से भी सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं हो सकता है । अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति तभी होती है जब निषेध्य का स्मरण हो और निषेध्य के आधार का ज्ञान हो । यहाँ सर्वज्ञ निषेध्य है और सकल देश तथा काल निषेध्य का आधार है । आज तक न तो किसी ने सर्वज्ञ को देखा है जिससे उसका स्मरण हो और न किसी को सकल देश-काल का ज्ञान है । तब अभाव प्रमाण सर्वज्ञ के अभाव को कैसे सिद्ध करेगा ? इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में बाधक प्रमाणों का असंभव सुनिश्चित होने के कारण सर्वज्ञ का अस्तित्व मानना प्रमाण संगत है । .
ईश्वरकर्तृत्वविचार .. यहाँ इस बात पर विचार करना है कि इस विश्व में कोई सृष्टिकर्ता है
या नहीं । इस विषय में नैयायिक-वैशेषिकों का मत है कि ईश्वर सृष्टिकर्ता है तथा वह सर्वज्ञ और अनादिमुक्त है । पूर्वपक्ष
नैयायिक मानते हैं कि ईश्वर पृथिवी, शरीर आदि कार्यों का कर्ता है