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________________ ६६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .. प्रत्यक्ष और अनुमान से अविरोधी हैं । उनके वचनों में किसी भी प्रमाण से विरोध नहीं आता है । इस प्रकार विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि भी हो जाती है । यहाँ ऐसी शंका करना ठीक नहीं है कि अतीत तथा अनागत पदार्थों का कोई निश्चित स्वरूप न होने के कारण सर्वज्ञ के द्वारा उन पदार्थों का ज्ञान कैसे होगा ? क्योंकि जिस प्रकार वर्तमान कालवर्ती पदार्थों का अस्तित्व पाया जाता है उसी प्रकार अतीत और अनागत कालवी पदार्थों का सत्त्व भी संभव है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि सर्वज्ञ के द्वारा एक ही क्षण में सब पदार्थों का ग्रहण हो जाने पर द्वितीयादि क्षणों में वह अज्ञ हो जायेगा । ऐसा तो तब हो सकता है जब द्वितीयादि क्षणों में पदार्थों का अथवा सर्वज्ञ के ज्ञान का अभाव हो । किन्तु ऐसा है नहीं । सर्वज्ञ का ज्ञान और सब पदार्थ तो अनन्त हैं । अतः सर्वज्ञ उन पदार्थों को प्रत्येक समय जानता है । मीमांसकों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि सर्वज्ञ के विद्यमान रहने पर भी असर्वज्ञों के द्वारा,सर्वज्ञ का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण सर्वज्ञ का अस्तित्व नहीं माना जा सकता है । क्योंकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि विषय का परिज्ञान न होने पर विषयी ( ज्ञान या ज्ञाता ) का भी परिज्ञान न हो । अन्यथा जो पुरुष सम्पूर्ण वेदार्थ को नहीं जानता है उसके द्वारा जैमिनी आदि में सकल वेदार्थ के परिज्ञान का निश्चय कैसे होगा ? मीमांसक मानते हैं कि जैमिनी सकल वेदार्थ के परिज्ञाता हैं । इसी प्रकार असर्वज्ञ हम लोग भी कह सकते हैं कि सर्वज्ञ सकल पदार्थों का परिज्ञाता है। अन्त में हमको इतना ही कहना है कि सर्वज्ञ के सद्भाव में बाधक प्रमाणों का असंभव सुनिश्चित होने के कारण अशेषार्थवेदी सर्वज्ञ की सत्ता सुनिश्चत है । प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण सर्वज्ञ की सत्ता का बाधक नहीं है । प्रत्यक्ष से सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता है । जो पुरुष प्रत्यक्ष से ऐसा जानता हो कि सर्वत्र सर्वदा कोई सर्वज्ञ नहीं है तो ऐसा जानने वाला स्वयं सर्वज्ञ हो जायेगा । अनुमान से सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने में वक्तृत्वात्, पुरुषत्वात्, रागादिदोषदूषितत्वात्-इत्यादि हेतु दिये जाते हैं । ये सब हेतु विरुद्ध आदि दोषों से दूषित होने के कारण तज्जन्य अनुमान सर्वज्ञ बाधक नहीं हो सकता है । वक्तृत्व और सर्वज्ञत्व में कोई विरोध भी नहीं है। आगम प्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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