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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
शाबरभाष्य में बतलाया गया है"चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलं नान्यत् किंचनेन्द्रियादिकम् ।" अर्थात् वेद भूत, वर्तमान, भावी, सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट, इत्यादि प्रकार के अर्थ को जानने में समर्थ है, अन्य इन्द्रियादि कोई भी ऐसे अर्थ को जानने में समर्थ नहीं है । इस कथन का तात्पर्य यह है कि कोई पुरुष विशेष उक्त प्रकार के अर्थ को नहीं जान सकता है । जिस काल में सर्वज्ञ विद्यमान है उस काल में भी असर्वज्ञों द्वारा यह सर्वज्ञ है' ऐसा ज्ञान संभव नहीं है । क्योंकि सर्वज्ञ के द्वारा ज्ञेय अखिल अर्थों के ज्ञान से रहित असर्वज्ञ पुरुष सर्वज्ञ का ज्ञान कैसे कर सकते हैं ? इत्यादि प्रकार से सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने के लिए मीमांसकों ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया है । उत्तरपक्ष
मीमांसकों ने सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने के लिए अपने पक्ष के समर्थन में जो कुछ कहा है वह युक्तिसंगत नहीं है । सब से पहले उन्होंने कहा है कि सर्वज्ञ की सिद्धि प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण से नहीं होती है । उनका ऐसा कथन सत्य नहीं है । क्योंकि अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं है । सर्वज्ञ साधक अनुमान इस प्रकार है___ 'कश्चिदात्मा सकलपदार्थसाक्षात्कारी तद्ग्रहणस्वभाववत्त्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात्, यथापगततिमिरादिप्रतिबन्ध लोचनविज्ञानं रूपसाक्षाकारि' अर्थात् कोई आत्मा सकल पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला है, क्योंकि उसका स्वभाव सकलपदार्थों के ग्रहण करने का है तथा उसके प्रतिबन्धक जो ज्ञानावरणादि कर्म हैं उनका प्रक्षय हो गया है । जैसे तिमिर आदि रोगरूप प्रतिबन्ध से रहित चाक्षुषज्ञान रूप का साक्षात्कार करता है ।
मीमांसक स्वयं मानते हैं कि आत्मा का स्वभाव सकल पदार्थों के साक्षात्कार करने का है । तभी तो वे कहते हैं कि वेद के द्वारा पुरुषों को अखिल पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । व्याप्तिज्ञान के द्वारा भी यह सिद्ध होता है कि आत्मा का स्वभाव सकल पदार्थों को जानने का है । धूम और वह्नि में जो व्याप्तिज्ञान होता है वह सकलदेशवर्ती और सकलकालवर्ती धूम