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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ।
सर्वज्ञत्वविचार यहाँ विचारणीय विषय यह है कि इस संसार में कोई पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है या नहीं ? इस विषय में मीमांसकों की मान्यता है कि कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है । पूर्वपक्ष
मीमांसकों का कहना है कि सत् पदार्थ के उपलम्भक प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों का विषय न होने के कारण कोई भी पुरुष सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होता है । जिस पदार्थ की सत्ता है उसका ज्ञान प्रत्यक्षादि प्रमाणों से होता है । किन्तु सर्वज्ञ का ज्ञान तो किसी भी प्रमाण से नहीं होता है । प्रत्यक्ष से तो सर्वज्ञ की सिद्धि होती नहीं है । क्योंकि प्रत्यक्ष इन्द्रिय सम्बद्ध और वर्तमान अर्थ को ही जानता है । हम प्रत्यक्ष से अन्य पुरुष में विद्यमान ज्ञान को नहीं जान सकते हैं । तब अनादि, अनन्त, अतीत, अनागत, वर्तमान और सूक्ष्मादि स्वभावयुक्त सकल पदार्थों को साक्षात् करने वाले ज्ञानविशेष ( केवलज्ञान ) को तथा ऐसे ज्ञानयुक्त पुरुष को प्रत्यक्ष से कैसे जान सकते हैं । अनुमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ को सिद्ध नहीं किया जा सकता है । यदि सर्वज्ञ के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला कोई हेतु हो तो उस हेतु से सर्वज्ञ का अनुमान किया जा सकता है । किन्तु ऐसा कोई हेतु उपलब्ध नहीं है । इसलिए सर्वज्ञ अनुमान द्वारा साध्य नहीं है । सर्वज्ञ को आगम प्रमाण से भी सिद्ध नहीं कर सकते हैं । इस विषय में दो विकल्प होते हैं-नित्य आगम से सर्वज्ञ की सिद्धि होगी या अनित्य आगम से ? नित्य आगम ( वेद ) सर्वज्ञ का साधक नहीं है । वह तो 'यह करो और यह मत करो' इत्यादि प्रकार से विधि और निषेध रूप कार्य का ही प्रतिपादक है । एक बात यह भी है कि वेद अनादि है और सर्वज्ञ सादि है । तब अनादि आगम में सादि सर्वज्ञ की बात कैसे हो सकती है ? अनित्य आगम से सर्वज्ञ की सिद्धि मानने पर प्रश्न होगा कि वह आगम सर्वज्ञ प्रणीत है या अन्य पुरुष प्रणीत ? सर्वज्ञ की सिद्धि के बिना सर्वज्ञ प्रणीत आगम संभव नहीं है और अन्य पुरुष प्रणीत आगम उन्मत्तवाक्य की तरह अप्रमाण है । ऐसी स्थिति में अनित्य आगम से सर्वज्ञ की सिद्धि संभव नहीं है । .
इसीप्रकार उपमान प्रमाण से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं हो सकती है ।