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द्वितीय परिच्छेदः सूत्र ११ ज्ञान अपने विषय में सावरण होता है । हम कह सकते हैं कि जो ज्ञान अपने विषय में प्रवृत्ति नहीं करता है वह सावरण है । जैसे कामला आदि रोग से दूषित व्यक्ति का चाक्षुषज्ञान एक चन्द्र में प्रवृत्ति न करने के कारण सावरण है । उसे एक चन्द्र के स्थान में दो चन्द्र दिखते हैं । तथा जो अपने . विषय में अस्पष्ट ज्ञान है वह भी सावरण है । जैसे कुहरे से आच्छादित वस्तुओं का ज्ञान । __आत्मा के ज्ञानादि गुणों के आच्छादक कर्म हैं और वे कर्म पौद्गलिक हैं । यहाँ कोई शंका कर सकता है कि पौगलिक होने से कर्म मूर्त हैं और मूर्त ज्ञानावरणादि अमूर्त आत्मा का आवरण कैसे कर सकता है ? इसके उत्तर में हमारा कथन यह है कि मूर्त के द्वारा भी अमूर्त का आवरण देखा जाता है । मदिरा मूर्त है और उसके पीने पर ज्ञान या चैतन्य पर उसका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । मद्यपान करने वाला व्यक्ति अपनी सुध-बुध भूल जाता है । यह सब मद्यपान के प्रभाव से ही होता है । अतः मूर्त कर्मों द्वारा अमूर्त आत्मा का आवरण होने में कोई विरोध नहीं है । ___यहाँ यौग ( नैयाग्निक-वैशेषिक ) कहते हैं कि धर्म और अधर्म संज्ञक कर्म तो आत्मगुण हैं । वे पौद्गलिक नहीं हो सकते हैं । उनका ऐसा कथन सर्वथा गलत है । यदि धर्माधर्मरूप अथवा अदृष्टरूप कर्म आत्मगुण हैं तो वे आत्मा के परतन्त्र होने में निमित्त नहीं हो सकते हैं । यह तो स्पष्ट ही है कि शरीर आदि हीनस्थान का परिग्रह ( स्वीकार ) करने के कारण आत्मा परतन्त्र है । कारागार की तरह दु:ख का हेतु होने से शरीर को हीनस्थान कहा गया । और हीनस्थान को धारण करने के कारण आत्मा परतन्त्र है । अत: जैनदर्शन का यह कथन सत्य है कि आत्मा की परतन्त्रता में निमित्त होने के कारण कर्म पौद्गलिक हैं । ऐसी आशंका भी ठीक नहीं है कि अनादिकालीन परम्परा से चले आये कर्म का निरोध कैसे संभव है ? क्योंकि संवर और निर्जरा के द्वारा कर्मों का निरोध और क्षय किया जा सकता है । संवर से आने वाले कर्मों का निरोध किया जाता है और निर्जरा से संचित कर्मों का क्षय हो जाता है । इसलिए सन्तान की अपेक्षा से अनादि होने पर भी सम्यग्दर्शनादि का परम प्रकर्ष हो जाने पर ज्ञानावरणादि . कर्मों का पूर्ण रूप से प्रक्षय हो जाता है ।