________________
प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
मुख्यप्रत्यक्ष के दो भेद हैं- विकलप्रत्यक्ष और सकलप्रत्यक्ष । विकलप्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं-अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान । अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लिये हए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जो रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त रूपी पदार्थों में होती है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिये हुए इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरे की मन की अवस्थाओं का जो ज्ञान होता है वह मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्ययज्ञानी दूसरे के मन में स्थित चिन्तित, अर्द्धचिन्तित और अचिन्तित अर्थ को जानता है । मनःपर्ययज्ञान की प्रवृत्ति अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग में होती है । इन दोनों ज्ञानों का विषय सीमित होता है । इसीलिए ये दोनों ज्ञान विकल मुख्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं । ये दोनों ज्ञान कतिपय रूपी पदार्थों को ही जानते हैं । किन्तु इनका जितना भी विषय होता है उस विषय में ये पूर्णरूप से विशद होते हैं । इसी कारण इनकी गणना मुख्य प्रत्यक्ष में की गई है।
केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष कहते हैं । ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण क्षय हो जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है । इसका विषय जीव, पुद्गल आदि सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायें हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं और केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है । ये तीनों ज्ञान मुख्य प्रत्यक्ष कहलाते हैं । अतीन्द्रिय होने से तथा अपने विषय में पूर्ण विशद होने से इनको मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं । मुख्य प्रत्यक्ष आत्ममात्र जन्य होता है । इसकी उत्पत्ति में इन्द्रिय आदि अन्य किसी कारण की अपेक्षा नहीं होती है।
कर्मों में पौद्गलिकत्व सिद्धि जैनदर्शन की मान्यता है कि कर्म पौद्गलिक हैं । किन्तु अन्य दर्शनों ने ऐसा नहीं माना है । आत्मा के ज्ञानादि गुणों को जो आच्छादित करता है उसे आवरण कहते हैं । ऐसा आवरण कौन हो सकता है ? शरीर, देश, काल आदि को आवरण नहीं माना जा सकता है । परन्तु इनसे भिन्न ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को ही आवरण कहा गया है । संसारी प्राणियों का