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________________ द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ८-११ अर्थात् अपने आवरण के क्षयोपशमरूप योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रतिनियत विषय की व्यवस्था करता है । इसका तात्पर्य यह है कि हम लोगों के ज्ञान पर आवरण पड़ा हुआ है । जब हमारे ज्ञान में प्रतिनियत विषय से सम्बन्धित ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है तब वह प्रतिनियत अर्थ को जानता है, अन्य को नहीं । इसका निष्कर्ष यह है कि जब हमारे ज्ञान में घटज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है तब हमारा ज्ञान घट को जानता है और जब पटज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है तब वह पट को जानता है । इस प्रकार हमारे ज्ञान में स्वावरणक्षयोपशमरूप योग्यता विद्यमान रहती है और उस योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रतिनियत अर्थ को जानता है । कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि जो ज्ञान का कारण है वह ज्ञान के द्वारा परिच्छेद्य होता है । इस मान्यता में दोष बतलाने के लिए सूत्र कहते कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः॥१०॥ ... अर्थात् ज्ञान के कारण को परिच्छेद्य मानने पर इन्द्रिय आदि के द्वारा व्यभिचार आता है । अतः जो ज्ञान का कारण होता है वह ज्ञान का विषय होता है, ऐसा मत समीचीन नहीं है । चक्षु आदि इन्द्रियाँ ज्ञान के कारण तो होती हैं किन्तु वे ज्ञान का विषयं नहीं होती हैं । चक्षु इन्द्रिय से उत्पन्न चाक्षुषज्ञान घटादि पदार्थों को तो जानता है किन्तु स्वयं चक्षु इन्द्रिय को नहीं जानता है । अतः यहाँ इन्द्रिय के द्वारा व्यभिचार ( दोष ) आने के कारण ज्ञान के कारण को परिच्छेद्य मानना युक्तिसंगत नहीं है । यदि कहा जाय कि इन्द्रिय में योग्यता के न होने के कारण ज्ञान के द्वारा इन्द्रिय का ग्रहण नहीं होता है, तो फिर सर्वत्र योग्यता ही प्रतिनियतविषय की व्यवस्था करने वाली मान लीजिए, तदुत्पत्ति आदि मानने से क्या लाभ है ? मुख्य प्रत्यक्ष का स्वरूप सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम्॥११॥ सम्यग्दर्शनादिरूप अन्तरंग और देशाकालादिरूप बहिरंग सामग्री की विशेषता ( समग्रता ) से दूर हो गये हैं समस्त आवरण ( ज्ञानावरणादि ) जिसके ऐसे अतीन्द्रिय और पूर्णरूप से विशद ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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