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________________ 4 / प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . अन्धकार में हमको आलोक के बिना भी अन्धकार की प्रतीति होती ही है । यदि आलोक ज्ञान का कारण होता तो आलोक के अभाव में अन्धकार की प्रतीति कैसे होती ? यह कहना भी ठीक नहीं है कि अन्धकार नामक कोई पदार्थ नहीं है जो ज्ञान के द्वारा जाना जाता हो, लोक में अन्धकार का व्यवहार तो ज्ञान की अनुत्पत्ति मात्र में होता है । यदि ऐसा है तो अन्धकार. का अभाव मानने वालों को आलोक का भी अभाव मानना पड़ेगा । हम कह सकते हैं कि आलोक कोई पृथक् पदार्थ नहीं है, लोक में आलोकं का व्यवहार तो विशद ज्ञान की उत्पत्तिमात्र में होता है । अतः आलोक की तरह तम भी प्रतीति सिद्ध है । इस प्रकार विचार करने पर ज्ञान में आलोककारणता का निरास हो जाता है । ज्ञान न तो अर्थ जन्य है और न आलोक जन्य है, फिर भी वह उनका प्रकाशक होता है । इसी बात को बतलाने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं अतजन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ॥८॥ अर्थात् ज्ञान अर्थ और आलोक से उत्पन्न न होकर भी उनका प्रकाशक ( जाननेवाला ) होता है, दीपक की तरह । यहाँ दीपक के दृष्टान्त द्वारा पूर्वोक्त विषय को स्पष्ट किया गया है । घटादि पदार्थ दीपक द्वारा प्रकाश्य हैं और दीपक उनका प्रकाशक है । किन्तु ऐसा नहीं है कि दीपक घटादि से उत्पन्न होकर घटादि का प्रकाशक होता हो । वह तो घटादि से उत्पन्न न होकर भी घटादि का प्रकाशक होता ही है । इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ और आलोक से उत्पन्न न होकर भी उनको जानता है । जिस प्रकार घट और प्रदीप दोनों ही अपने अपने कारणों से उत्पन्न होकर परस्पर की अपेक्षा से उनमें प्रकाश्य और प्रकाशक धर्म की व्यवस्था होती है, उसी प्रकार अर्थ और ज्ञान भी स्वसामग्री विशेष से उत्पन्न होकर परस्पर की अपेक्षा से उनमें ग्राह्य और ग्राहक धर्म की व्यवस्था होती है । ____ यहाँ कोई शंकाकार कह सकता है कि यदि ज्ञान की उत्पत्ति अर्थ से नहीं होती है तो ज्ञान के प्रतिनियत विषय की व्यवस्था कैसे होगी ? इसका उत्तर देने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैंस्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति ॥९॥
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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