________________
द्वितीय परिच्छेदः सूत्र ७
५७ संशय ज्ञान के विषयभूत स्थाणु और पुरुष-इन दो अर्थों का एक ही स्थान में सद्भाव भी संभव नहीं है । इससे यही सिद्ध होता है कि संशय ज्ञान अर्थ के अभाव में होता है । उपर्युक्त कथन का तात्पर्य यही है कि ज्ञान अर्थ का कार्य नहीं है । ____ कुछ लोगों का ऐसा मत है कि जो ज्ञान का कारण है वही ज्ञान का विषय होता है । उनके मत में एक दोष यह भी है कि तब योगिज्ञान से पहले होने वाले अर्थों की ही योगिज्ञान से परिच्छित्ति ( ज्ञान ) होगी । योगिज्ञान के काल में होने वाले तथा भविष्यकाल में होने वाले अर्थों की योगिज्ञान के द्वारा परिच्छित्ति नहीं हो सकेगी । क्योंकि वे योगिज्ञान के कारण नहीं होते हैं । नैयायिक ईश्वर के ज्ञान को नित्य मानते हैं । उनके मत में ईश्वर के ज्ञान का कारण कोई अर्थ नहीं है । फिर भी ईश्वर के ज्ञान के द्वारा वे अर्थ परिच्छेद्य ( विषय ) होते हैं जो ईश्वर ज्ञान के कारण नहीं हैं ।
नैयायिक तम ( अन्धकार ) को पृथक् पदार्थ नहीं मानते हैं । उनके अनुसार आलोक का अभाव ही तम है ।अतः वे कहते हैं कि सूत्र में दिया गया 'तमोवत्' दृष्टान्त गलत है । यहाँ हम ( जैन ) नैयायिक से ऐसा भी कह सकते हैं कि आलोक भी कोई पृथक् पदार्थ नहीं है, किन्तु तम के अभाव का नाम ही आलोक है । यथार्थ बात तो यह है कि आलोक और तम दोनों का ही पृथक् अस्तित्व है । अतः सूत्र में दिया गया 'तमोवत्' दृष्टान्त गलत नहीं है । इत्यादि प्रकार से विचार करने पर ज्ञान में अर्थकारणता का निरास हो जाता है।
. आलोककारणतावाद ..' 'जिस प्रकार अर्थ ज्ञान का कारण नहीं है उसी प्रकार आलोक भी ज्ञान का कारण नहीं है । यहाँ पहली बात तो यह है कि ज्ञान के द्वारा परिच्छेद्य होने से आलोक ज्ञान का कारण नहीं हो सकता है । जैसे अन्धकार ज्ञान के द्वारा परिच्छेद्य होता है वैसे आलोक भी ज्ञान के द्वारा परिच्छेद्य होता है । अतः अन्धकार की तरह आलोक ज्ञान का कारण नहीं है । दूसरी बात यह है कि जिनके चक्षु विशेष प्रकार के अंजन से युक्त हैं ऐसे पुरुषों को तथा रात्रि में विचरण करने वाले मार्जार आदि कुछ जानवरों को आलोक के अभाव में भी रात्रि में पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । गहन