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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष एक देश विशद होता है, अवधि आदि ज्ञानों की तरह वह सर्वदेश विशद नहीं होता है । सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैंइन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष । स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । वास्तव में तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष परोक्ष ही है, किन्तु लोकव्यवहार में इसे प्रत्यक्ष माना गया है । इसलिए लोकव्यवहार से समन्वय करने के लिए इसको यहाँ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम दिया गया है। बौद्ध, नैयायिक आदि कुछ दार्शनिक अर्थ और आलोक को ज्ञान का कारण मानते हैं । इनके मत का निराकरण करने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात् तमोवत् ॥६॥ अर्थ और आलोक ज्ञान के कारण नहीं हैं, परिछेद्य होने से, अन्धकार की तरह । . परिच्छेद्य का अर्थ है विषय अथवा ज्ञेय । जिस प्रकार ज्ञान का विषय होने से अन्धकार ज्ञान का कारण नहीं होता है, उसी प्रकार अर्थ और आलोक भी ज्ञान के विषय होने से ज्ञान के कारण नहीं हो सकते हैं । यह नियम है कि जो ज्ञान का विषय होता है वह ज्ञान का कारण नहीं हो सकता है । अर्थ और आलोक को ज्ञान का विषय होने में कोई सन्देह नहीं है । क्योंकि हम इन्द्रियजन्य ज्ञान से अर्थ और आलोक को जानते ही हैं । ___ अर्थ और आलोक को ज्ञान का कारण न होने में एक दूसरा भी हेतु दिया गया है । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोण्डुकज्ञानवत् नक्तंचरज्ञानवच्च ॥७॥ ज्ञान का अर्थ और आलोक के साथ अन्वय-व्यतिरेक नहीं होने से वे ज्ञान के कारण नहीं हो सकते हैं । केशोण्डुकज्ञान और नक्तंचरज्ञान की तरह । ज्ञान कार्य है तथा अर्थ और आलोक ज्ञान के कारण हैं । इनमें कार्यकारणभाव तभी सिद्ध हो सकता है जब इनमें अन्वय-व्यतिरेक हो ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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