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द्वितीय परिच्छेदः सूत्र ५ निकटवर्ती अर्थ का ग्रहण क्यों नहीं होगा । यदि ऐसा नियम हो कि चक्षु से सम्बद्ध अर्थ का ही ग्रहण होता है तो फिर चक्षु के द्वारा स्फटिक आदि से व्यवहित अर्थ का ग्रहण कैसे होगा । यदि चक्षु की रश्मियाँ स्फटिक का भेदन करके उससे व्यवहित अर्थ की प्रकाशक हो सकती हैं तो उन्हें मलसहित जल के अन्दर विद्यमान अर्थ की भी प्रकाशक होना चाहिए । क्योंकि जो रश्मियाँ कठोर स्फटिक का भेदन कर सकती है वे द्रवस्वभावरूप जल का भेदन तो आसानी से कर लेंगी । इस प्रकार अनेक दोषों से दूषित होने के कारण न तो गोलकरूप चक्षु और न रश्मिरूप चक्षु प्राप्तार्थप्रकाशक सिद्ध होती है । इसके विपरीत हम कह सकते हैं कि चक्षु अप्राप्तार्थप्रकाशक है, क्योंकि वह अति सन्निकट अर्थ अंजनादि की प्रकाशक नहीं होती है । उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि न तो चक्षु बाहर जाकर अर्थ के साथ सन्निकर्ष करती है और न अर्थ चक्षु के पास आकर चक्षु के साथ सन्निकर्ष करता है । अतः यह सिद्ध होता है कि चक्षु प्राप्तार्थप्रकाशक न होकर अप्राप्तार्थप्रकाशक है । इस प्रकार नैयायिकों का चक्षुःसन्निकर्षवाद निराकृत हो जाता है।
प्रत्यक्ष के भेद - प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मुख्य प्रत्यक्ष । उनमें से यहाँ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की उत्पत्ति के कारण और स्वरूप बतलाते हैं
इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम् ॥५॥
जो ज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय ( मन ) के द्वारा उत्पन्न होता है तथा एकं देश विशद है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। ____ प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप समीचीन व्यवहार को संव्यवहार कहते हैं । ऐसा संव्यवहार जिस ज्ञान का प्रयोजन है उसे सांव्यवहारिक कहते हैं । यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष एक देश विशद होता है । इस सूत्र में 'इन्द्रियानिन्द्रियानिमित्तम्' इस पद के द्वारा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की उत्पत्ति के कारण बतलाये गये हैं । उक्त सूत्र में विशद और ज्ञान इन दो पदों की अनुवृत्ति होती है । अतः 'देशतः विशदं ज्ञान सांव्यवहारिकप्रत्यक्षम्' इस वाक्य के द्वारा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का स्वरूप बतलाया गया है ।