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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ...
चक्षुःसन्निकर्षवाद नैयायिक मानते हैं कि चक्षु का अर्थ के साथ सन्निकर्ष होता है । वे इसकी सिद्धि अनुमान प्रमाण से करते हैं । वह अनुमान इस प्रकार है
- चक्षुः प्राप्तार्थप्रकाशकं बाह्येन्द्रियत्वात् स्पर्शनेन्द्रियादिवत् । अर्थात् चक्षु अर्थ को प्राप्त कर ( छूकर ) ही उसको जानती है । क्योंकि वह बाह्य इन्द्रिय है, जैसे कि स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ । यहाँ हम नैयायिक से पूछना चाहते हैं कि जिस चक्षु को आप प्राप्तार्थप्रकाशक सिद्ध करना चाहते हैं उसका स्वरूप क्या है । क्या वह चक्षु गोलक स्वभाव ( गोलाकार रूप ) है या रश्मिरूप है । चक्षु को गोलकरूप मानकर यह कहना कि चक्षु प्राप्तार्थप्रकाशक है, सर्वथा गलत है । क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष से बाधा आती है । क्योंकि गोलकरूप चक्षु अर्थ के स्थान में न जाकर शरीरप्रदेश में ही स्थित रहती है । यदि गोलकरूप चक्षु अर्थ को प्राप्त करने के लिए बाहर जाती है तो उस समय आँख के पलक गोलक रहित दिखना चाहिए । किन्तु ऐसा होता नहीं है । अतः चक्षु को गोलकरूप मानना ठीक नहीं है ।
चक्षु को रश्मिरूप मानने पर भी प्रत्यक्ष से बाधा आती है । प्रत्यक्ष के द्वारा चक्षु की रश्मियों ( किरणों ) की प्रतीति होती ही नहीं है । नैयायिकों के मत में चक्षु तैजस ( अग्नि ) द्रव्यरूप है । अतः वे कह सकते हैं कि गोलक के अन्तर्गत तैजस द्रव्य से निकल कर बाहर गई हुईं रश्मियों को हम चक्षु मानते हैं और वे रश्मियाँ प्राप्तार्थप्रकाशक होती है । यदि ऐसी बात है तो फिर गोलक का उन्मीलन ( खोलना ) और अंजनादि के द्वारा उसका संस्कार करना व्यर्थ हो जायेगा । क्योंकि गोलक खुला रहे या बन्द रहे, बाहर गई हुईं रश्मियाँ तो अपना काम करेंगी ही । आँख में अंजनादि का संस्कार भी इसीलिए किया जाता है जिससे कि आँख अपना काम ठीक से करे । यदि गोलक से निकलकर अर्थ के साथ सम्बन्ध करने के लिए रश्मियाँ बाहर जाती हैं तो बाह्य प्रदेश में तैजस रश्मियों की उपलब्धि होना चाहिए । किन्तु उनकी उपलब्धि होती नहीं है । नर और नारी के नयन प्रभासुर रश्मि से रहित होते हैं, इस बात की प्रतीति प्रत्यक्ष से होती है । __ यदि चक्षु प्राप्तार्थप्रकाशक है तो चक्षु में लगे हुए अंजन का प्रकाशक भी उसे होना चाहिए । जो दूरवर्ती अर्थ को ग्रहण करने में समर्थ है उससे