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________________ द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ४ प्रकार उस मनुष्य की विशेषताओं को जानकर उसके विषय में जो ज्ञान होता है वह विशद ज्ञान है । प्रतीत्यन्तर के अव्यवधान से वस्तु का प्रतिभास होना अथवा वस्तु की विशेषताओं का प्रतिभास होना, इन दोनों ही अवस्थाओं में वैशद्य पाया जाता है । ऐसा वैशद्य सब प्रत्यक्षों में उपलब्ध होता है । अतः यह प्रत्यक्ष का निर्दोष लक्षण है । . यहाँ एक बात विशेषरूप से जानने योग्य है कि ज्ञानों में जो प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद बतलाया गया है वह बाह्य अर्थ के ग्रहण की अपेक्षा से ही होता है, स्वरूप संवेदन की अपेक्षा से उसमें कोई भेद नहीं होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि बाह्य अर्थ जानने के समय ज्ञानान्तर का व्यवधान और अव्यवधान होने के कारण ज्ञानों में वैशद्य और अवैशद्य संभव है । जिस ज्ञान में ज्ञानान्तर का व्यवधान होता है वह अविशद होता है और जिसमें ज्ञानान्तर का व्यवधान नहीं होता है वह विशद कहलाता है । किन्तु स्वस्वेदन में ऐसी बात नहीं है । स्वसंवेदन की अपेक्षा से तो सभी ज्ञान विशद ही हैं । क्योंकि वहाँ ज्ञानान्तर का व्यवधान नहीं होता है । इस दृष्टि से स्वरूपसंवेदनरूप सब ज्ञान प्रत्यक्ष ही होते हैं । न्यायदर्शन में प्रत्यक्षलक्षण विचार : न्यादर्शन में प्रत्यक्ष का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है . इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानं प्रत्यक्षम् अर्थात् इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष ( सम्बन्ध ) से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। नैयायिकों द्वारा अभिमत प्रत्यक्ष का यह लक्षण समीचीन नहीं है । क्योंकि सब प्रत्यक्षों में यह लक्षण नहीं पाया जाता है । अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं । इन ज्ञानों में उक्त लक्षण का सद्भाव नहीं है । सुखादि के संवेदन में भी उक्त लक्षण - संभव नहीं है । सुखादि का जो संवेदन होता है वह इन्द्रिय और सुखादि के सन्निकर्ष से उत्पन्न नहीं होता है । यहाँ एक बात यह भी द्रष्टव्य है कि स्पर्शन आदि चार इन्द्रियों में तो अर्थ के साथ सन्निकर्ष पाया जाता है किन्तु चक्षु इन्द्रिय का अर्थ के साथ सन्निकर्ष नहीं होता है।अत: चाक्षुषज्ञान में उक्त · लक्षण का अभाव है । इस प्रकार नैयायिक अभिमत प्रत्यक्ष के लक्षण में __अव्याप्ति दोष आने के कारण उक्त लक्षण निर्दोष नहीं है ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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