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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
ज्ञानावरण कर्म ज्ञान का प्रतिबन्धक होता है । अतः जितने अंश में ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होगा उतने ही अंशमें ज्ञान स्पष्ट होगा ।
वैशद्य का स्वरूप प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥४॥ - ज्ञान को प्रतीति कहते हैं । एक ज्ञान से भिन्न दूसरे ज्ञान को प्रतीत्यन्तर कहते हैं । हमें किसी एक ज्ञान से किसी अर्थ का जो प्रतिभास हो रहा है उसमें किसी दूसरे ज्ञान के द्वारा व्यवधान नहीं होना चाहिए । अर्थात् जब हम एक ज्ञान से किसी ज्ञानान्तर के व्यवधान के बिना अर्थ को जानते हैं तब हमारा ज्ञान विशद कहलाता है । और यदि हम किसी अर्थ को सीधे न जानकर दूसरे ज्ञान के माध्यम से जानते हैं तो वहाँ हमारा ज्ञान अविशद हो जाता है । जैसे हमारे सामने घट है । हम चक्षु से घट को देख कर घट का ज्ञान करते हैं । यहाँ चक्षु और घट के बीच में कोई दूसरा ज्ञान व्यवधान उत्पन्न नहीं करता है । अतः इस ज्ञान में प्रतीत्यन्तर ( ज्ञानान्तर ) का अव्यवधान होने से यह ज्ञान विशद है । अब व्यवधान का उदाहरण देखिए । हम धूम को देखकर पर्वत में अग्नि का ज्ञान करते हैं । यहाँ अग्नि का ज्ञान करने में धूम के ज्ञान का व्यवधान आता है । हम धूमज्ञान के बिना पर्वत में अग्नि का ज्ञान नहीं कर सकते हैं । अतः प्रतीत्यन्तर का व्यवधान आने के कारण पर्वत में हमें जो अग्नि का ज्ञान हुआ है वह अविशद है । इससे यह सिद्ध होता है कि किसी ज्ञान में वैशद्य होने के लिए ज्ञानान्तर का अव्यवधान आवश्यक है । कोई भी ज्ञान तभी विशद कहलाता है जब उसमें किसी ज्ञानान्तर का व्यवधान न हो । दूसरे प्रकार से भी वैशद्य को बतलाया गया है । वह इस प्रकार है
विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् । अर्थात् विशेषरूप से प्रतिभासन का नाम भी वैशद्य है । किसी वस्तु के वर्ण, संस्थान आदि विशेषताओं का जो स्पष्ट प्रतिभास होता है उसे भी वैशद्य माना गया है । जैसे दूर देश में पहले किसी मनुष्य के संस्थानमात्र ( सामान्याकार ) का ज्ञान हुआ और बाद में उस देश के निकट पहुँचने पर उस मनुष्य के संस्थान विशेष ( आकारविशेष ) का ज्ञान होता है कि यह दाक्षिणात्य है, इसका वर्ण कृष्ण है, यह हृष्ट-पुष्ट है, इत्यादि । इस