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द्वितीय परिच्छेद : सूत्र ३ नैयायिकों ने जो यह कहा है कि पृथिवी आदि की पृथिवीत्वादि ही निज शक्ति है, वह भी ठीक नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर मृत्पिण्ड से घट की उत्पत्ति की तरह पट की उत्पत्ति का भी प्रसंग प्राप्त होगा । पृथिवीत्व जैसे घटोत्पत्ति में कारण है वैसे ही उसे पट की उत्पत्ति में भी कारण होना चाहिए । क्योंकि तन्तु भी तो पृथिवीरूप ही हैं । शक्ति नित्य है या अनित्य ऐसा विकल्प होने पर हमारा उत्तर है कि प्रत्येक पदार्थ द्रव्य और पर्याय रूप है । अतः द्रव्यशक्ति नित्य है और पर्यायशक्ति अनित्य है । केवल द्रव्यशक्ति कार्यकारिणी नहीं होती है, किन्तु पर्यायशक्तिसमन्वित द्रव्यशक्ति कार्य करती है । अर्थात् विशिष्ट पर्याय परिणत द्रव्य में ही कार्यकारित्व की प्रतीति होती है । शक्ति शक्तिमान् पदार्थ से भिन्न है या अभिन्न । इस विकल्प के उत्तर में जैनदर्शन का मत यह है कि शक्ति और शक्तिमान् पदार्थ में कथंचित् भेद है और कथंचित् अभेद है । शक्ति एक है या अनेक ऐसा विकल्प होने पर हमारा कथन यह है कि पदार्थों में अनेक शक्तियों का मानना आवश्यक है, क्योंकि वे अनेक कार्यों को करती हैं । कारणों में शक्तिभेद के बिना उनके द्वारा कार्यनानात्व नहीं बन सकता है । इत्यादि प्रकरा से विचार करने पर नैयायिक मत के निराकरणपूर्वक अतीन्द्रिय शक्ति का सद्भाव सिद्ध हो जाता है ।
प्रत्यक्ष का लक्षण
विशदं प्रत्यक्षम् ॥३॥ जो ज्ञान विशद होता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है । विशद का पर्यायवाची शब्द स्पष्ट है । अत: जो ज्ञान स्पष्ट नहीं है उसे प्रत्यक्ष नहीं कह सकते हैं । . . अकस्मात् धूमदर्शन से 'यहाँ वह्नि है' ऐसा जो ज्ञान होता है उसे प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता है । क्योंकि यह ज्ञान अस्पष्ट है तथा धूमदर्शन के अनन्तर हुआ है । इसी प्रकार जहाँ जहाँ धूम है वहाँ वहाँ अग्नि है ऐसा व्याप्तिज्ञान भी अस्पष्ट होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता है । इन्द्रियों के कारण भी ज्ञान में स्पष्टता नहीं आती है । अन्यथा दूरवर्ती पादप आदि के ज्ञान में तथा दिन में उलूक आदि के ज्ञान में भी स्पष्टता का प्रसंग प्राप्त होगा । क्योंकि चक्षु इन्द्रिय का व्यापार तो वहाँ हो ही रहा है। निष्कर्ष यह है कि ज्ञान में स्पष्टता का हेतु है प्रतिबन्ध का अभाव ।