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द्वितीय परिच्छेदः सूत्र ६, ७
कार्य के होने पर कारण का होना अन्वय है और कारण के अभाव में कार्य का न होना व्यतिरेक है । जैसे धूम के होने पर वह्नि का होना अन्वय है और वह्नि के अभाव में धूम का नहीं होना व्यतिरेक है । ऐसा अन्वयव्यतिरेक होने से ही धूम और वह्नि में कार्यकारणभाव होता है ।
किन्तु हम देखते हैं कि ज्ञान का अर्थ और आलोक के साथ इस प्रकार का अन्वय-व्यतिरेक नहीं है । इसी बात की पुष्टि करने के लिए केशोण्डुकज्ञान और नक्तंचरज्ञान का उदाहरण दिया गया है । अर्थ के होने पर ही ज्ञान का होना अन्वय है और अर्थ के अभाव में ज्ञान का नहीं होना व्यतिरेक है । ऐसा अन्वय- व्यतिरेक ज्ञान और अर्थ में नहीं है । क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केशोण्डुकज्ञान हो जाता है । इसके द्वारा व्यतिरेक का अभाव बतलाया गया है । तथा अर्थ के रहने पर भी उस ओर उपयोग न होने से अन्यमनस्क पुरुष को अर्थ का ज्ञान नहीं होता है । इसके द्वारा अन्वय का अभाव बतलाया गया है । इस प्रकार ज्ञान और अर्थ में अन्वयव्यतिरेक सिद्ध नहीं होता है ।
इसी प्रकार ज्ञान और आलोक में भी अन्वय- व्यतिरेक नहीं पाया जाता है । आलोक के होने पर ही ज्ञान का होना अन्वय है और आलोक के अभाव में ज्ञान का नहीं होना व्यतिरेक है । ऐसा अन्वयव्यतिरेक ज्ञान और आलोक में नहीं है । क्योंकि आलोक के अभाव में भी मार्जार आदि नक्तंचर (रात्रि में चलने वाले ) प्राणियों को अर्थ का ज्ञान हो जाता है । इसके द्वारा व्यतिरेक का अभाव बतलाया गया है । हम यह भी देखते हैं कि आलोक़ के रहने पर भी उलूक आदि प्राणियों को दिन में भी अर्थ का ज्ञान नहीं होता है । इसके द्वारा अन्वय का अभाव बतलाया गया है । इस . प्रकार ज्ञान और आलोक में अन्वयव्यतिरेक सिद्ध नहीं होता है ।
सूत्र में केशोण्डुकज्ञान और नक्तंचरज्ञान का जो उदाहरण दिया गया है वह केवल व्यतिरेक का अभाव बतलाने के लिए ही है । अन्वय का अभाव बतलाने वाला कोई उदाहरण वहाँ नहीं है । किन्तु ज्ञानका अर्थ और आलोक के साथ व्यतिरेक नहीं होने से यह भी सुनिश्चित हो जाता है कि उनका ज्ञान के साथ अन्वय भी नहीं है । क्योंकि व्यतिरेक के अभाव में अन्वय का अभाव भी स्वतः सिद्ध हो जाता है । इसी बात को इस प्रकार भी कह सकते हैं कि यदि उनमें व्यतिरेक नहीं है तो मात्र अन्वय होने से
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