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________________ ७E छेदसुत्ताणि __ श्रमणचर्या का यह सामान्य नियम है कि श्रमण सदा स्थल पर चले, जल में नहीं । अतः इस सूत्र में “जलंसि" पद देने का क्या अभिप्राय है-यह प्रश्न उचित है। प्रस्तुत सूत्र की संस्कृत वृत्ति में इसका समाधान इस प्रकार दिया गया है"अत्र जल शब्देन नद्यादिजलं (जलाशयं) न गृह्यते, किन्तु दिवसस्य यामाऽवसान एवात्र जल शब्द वाच्यो भवतीति समये रीतिः"। अर्थ-यहाँ पर • अल शब्द से नदी आदि का जल ग्रहण नहीं किया गया है, किन्तु दिन के तीसरे प्रहर का अवसान ही यहाँ पर जल शब्द का वाच्यार्थ है। यह समय (आगम) की रीति है।" किन्तु सूत्र में- “जत्थेव सूरिए अत्थमज्जा" ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इसलिए वृत्तिकार द्वारा बताया गया अर्थ सूत्र-संगत प्रतीत नहीं होता। इसी सूत्र की चूर्णी में “जलंसि".का अर्थ इस प्रकार किया गया है"जत्थ चत्थि पोरिसिं पत्तो सूरे अत्यं च भवति, जलं अन्भागवासियं, जहि उस्सा पडंति..." दसा० चूणि ...पत्र ५१-ए । अर्थ-चौथे प्रहर में जब सूर्य अस्त होने लगे उस समय जल बरसने लगे या ओस पड़ने लगे तब भिक्षु प्रतिमाधारी अनगार को वहीं ठहर जाना चाहिए, एक कदम भी आगे नहीं बढ़ना चाहिए। चूर्णिकार का यह अर्थ सर्वथा प्रकरण-संगत प्रतीत होता है । सूत्र २० मासियं णं भिक्खु-पडिमं पडिवन्नस्स णो से कप्पइ अणंतरहियाए पुढवीए निद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा । केवली बूया-"आदाणमेयं"। से तत्थ निद्दायमाणे वा, पयलायमाणे वा हत्थेहि भूमि परामुसेज्जा। अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए, निक्खमित्तए । उच्चार-पासवणेणं उब्बाहिज्जा, नो से कप्पति उगिण्हित्तए वा। कप्पति से पुवपडिलेहिए थंडिले उच्चार-पासवणं परिठवित्तए । तम्मेव उवस्सयं आगम्म अहाविहि ठाणं ठवित्तए ।
SR No.002225
Book TitleChed Suttani Aayar Dasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherAagam Anyoug Prakashan
Publication Year1977
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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