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आयारदसा
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मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार के आंख में मच्छर आदि सूक्ष्म जन्तु, बीज (फूस, तिनका आदि) रज आदि गिर जावे तो उसे निकालना या विशुद्धि (उपचार) करना नहीं कल्पता है, किन्तु उसे ईर्यासमिति पूर्वक चलते रहना कल्पता है।
सूत्र १६
मासियं णं भिक्खु-पडिमं पडिवनस्स जत्थेव सूरिए अत्थमज्जा तत्य एव जलंसि वा, थलंसि वा, दुग्गंसि वा, निण्णंसि वा, पव्वयंसि वा, विसमंसि वा, गड्डाए वा, दरीए वा,
कप्पति से तं रयणी तत्थेव उवाइणावित्तए; नो से कप्पति पदमवि गमित्तए। . कप्पति से कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव-जलते पाइणाभिमुहस्स वा, दाहिणाभिमुहस्स वा, पडीणाभिमुहस्स वा, उत्तराभिमुहस्स वा, अहारियं रियत्तए।
मासिकी भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को विहार करते हुए जहाँ सूर्यास्त हो जाय उसे वहीं रहना चाहिए-.
चाहे वहाँ जल हो या स्थल हो, दुर्गम मार्ग हो या निम्न (नीचा) मार्ग हो, पर्वत हो या विषममार्ग हो, गर्त हो या गुफा हो,
पूरी रात वहीं रहना चाहिए, अर्थात् एक कदम भी आगे नहीं बढ़ना चाहिए। . . किन्तु प्रातःकालीन प्रभा प्रगट होने पर यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर उसे ईर्यासमिति पर्वक गमन करना कल्पता है।
विशेषार्थ-इस सूत्र में यह कहा गया है कि "विहार करते हुए जहाँ सूर्यास्त हो जाय वहीं भिक्षु-प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को ठहर जाना चाहिए, चाहे कैसा भी मार्ग क्यों न हो" ! ___इस सन्दर्भ में सर्व प्रथम "जलंसि" पद दिया गया है। यह प्राकृत भाषा. .. - में जल शब्द की सप्तमी विभक्ति के एकवचन का रूप है। इसका अर्थ
है, "जल में"।