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छेदसुत्ताणि १ पूर्व असमुत्पन्न (पहिले कभी उत्पन्न नहीं हुई) ऐसी धर्म-भावना यदि
साधु के उत्पन्न हो जाय तो वह सर्व धर्म को जान सकता है, इससे चित्त को समाधि प्राप्त हो जाती है। २ पूर्व अपृष्ट यथार्थ स्वप्न यदि दिख जाय तो चित्तसमाधि प्राप्त हो
जाती है। ३ पूर्व असमुत्पन्न संज्ञि-जातिस्मरण द्वारा संज्ञि-ज्ञान यदि उसे उत्पन्न
हो जाय और अपनी पुरानी जाति का स्मरण करले तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ४ पूर्व अदृष्ट देव-दर्शन यदि उसे हो जाय और दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य
देव-द्य ति और दिव्य देवानुभाव दिख जाय तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है। ५ पूर्व असमुत्पन्न अवधिज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अवधिज्ञान के द्वारा वह लोक को जान लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो
जाती है। ६ पूर्व असमुत्पन्न अवधिदर्शन यदि उसे उत्पन्न हो जाय और अवधिदर्शन के द्वारा वह लोक को देख लेवे तो चित्त समाधि प्राप्त हो
जाती है। ७ पूर्व असमुत्पन्न मनःपर्यवज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और
मनुष्य क्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप-समुद्रों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जा लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो
जाती है। - ८ पूर्व असमुत्पन्न केवलज्ञान यदि उसे उत्पन्न हो जाय और केवल-कल्प
लोक-अलोक को जान लेवे तो चित्तसमाधि प्राप्त हो जाती है । ....६ पूर्व असमुत्पन्न केवलदर्शन यदि उसे उत्पन्न हो जाय और केवल-कल्प
लोक-अलोक को देख लेवे तो चित्त समाधि प्राप्त हो जाती है । १० पूर्व असमुत्पन्न केवल-मरण यदि उसे प्राप्त हो जाय तो वह सर्व .. दुःखों के सर्वथा अभाव से पूर्ण शान्तिरूप समाधि को प्राप्त हो
जाता है।
ओज (राग-द्वेष-रहित निर्मल) चित्त को धारण करने पर एकाग्रतारूप ध्यान उत्पन्न होता है और शंका-रहित धर्म में स्थित आत्मा निर्वाण को प्राप्त करता है ॥१॥
इस प्रकार चित्त -समाधि को धारण कर आत्मा पुनः-पुनः लोक में उत्पन्न नहीं होता और अपने उत्तम स्थान को सज्ञि-ज्ञान से जान लेता है ।।२।।