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________________ आयारदसा ३७ पडिमाए विसुद्धाए, मोहणिज्जे ख्यं गए। असेसं लोगमलोगं च, पासेति सुसमाहिए ॥१०॥ जहा मत्थय सूइए,' हताए हम्मइ तले। एवं कम्माणि हम्मंति, मोहणिज्जे खयं गए ॥११॥ सेणावइम्मि निहए, जहा सेणा पणस्सति । एवं कम्माणि णस्संति मोहणिज्जे खयं गए ॥१२॥ धूमहीणो जहा अग्गी, खीयति से निरिधणे । एवं कम्माणि खीयंति, मोहणिज्जे खयं गए ॥१३॥ सुक्क-मूले जहा रुक्खे, सिंचमाणे. ण रोहति । एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिज्जे खयं गए ॥१४॥ जहा दड्ढाणं बीयाणं, न जायंति पुणंकुरा । कम्म-बीएसु ‘दड्ढेसु न, आयंति भवंकुरा ॥१५॥ चिच्चा ओरालियं बोंदि, नाम-गोयं च केवली । आउयं वेयणिज्जं च, छित्ता भवति नीरए ॥१६॥ एवं अभिसमागम्म, चित्तमादाय आउसो। सेणि-सुद्धिमुवागम्म, आया सोधिमुबेहइ ॥१७॥ --त्ति बेमि। इत पंचमा चित्तसमाहिवाणादसा समत्ता 'हे आर्यो' ! इस प्रकार आमंत्रण (सम्बोधन) कर श्रमण भगवान महावीर निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों से कहने लगे--- 'हे आर्यो' ! निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को, जो ईयासमितिवाले, भाषासमितिवाले, एषणासमितिवाले, आदान-भाण्ड-मात्रनिक्षेपणा समितिवाले, उच्चार-प्रस्रवण खेल-सिंघाणक-जल्ल-मल की परिष्ठापना समितिवालें, मनःसमितिवाले, वाक्समितिवाले, कायसमितिवाले, मनोगुप्तिवाले, वचनगुप्तिवाले, कायगुप्तिवाले, तथा गुप्तेन्द्रिय, गुप्तब्रह्मचारी, आत्मार्थी, आत्मा का हित करनेवाले, आत्मयोगी, आत्मपराक्रमी, पाक्षिक पौषधों में समाधि को प्राप्त और शुभ ध्यान करने वाले मुनियों को ये पूर्व अनुत्पन्न चित्त समाधि के दश स्थान उत्पन्न हो जाते हैं। वे इस प्रकार हैं १ मत्थयसूइ, मत्थयसूइ । २ आ० प्रती 'आयो सखिम वागई। घा० प्रती 'आयसोहिमवेइय ।' इति पाठा ।
SR No.002225
Book TitleChed Suttani Aayar Dasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherAagam Anyoug Prakashan
Publication Year1977
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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