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छेदसुत्ताणि जाव-एवं खलु समणाउसो ! निग्गंथो वा निग्गंथी वा णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइए अप्पडिक्कते तं जाव-विहरति ।
से णं तत्थ णो अण्णेसि देवाणं अण्णं देवि अभिमुंजिय परियारेइ, णो अप्पणा चेव अप्पाणं वेउब्विय परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिमुंजिय परियारेइ।
सप्तम निदान हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्ररूपण किया है। यावत् पृष्ठ १६० मानव सम्बन्धी काम-भोग अध्र व हैं । (आगे का वर्णन पूर्व के समान है देखें पृष्ठ १७३)
ऊपर देवलोक में देव हैं । वहां वे अन्य देव-देवियों के साथ अनंग क्रीड़ा नहीं करते हैं। __स्वयं के विकुर्वित देव-देवियों के साथ भी अनंगक्रीड़ा नहीं करते हैं ।
यदि इस तप-नियम एवं ब्रह्मचर्य-पालन का फल हो तो (सारा वर्णन पूर्व के समान है । देखें पृष्ठ १५८)
हे आयुष्मान् श्रमणो ! निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी निदान करके उस निदान शल्य की आलोचना प्रतिक्रमण यावत् पृष्ठ १६२ । दोषानुसार प्रायश्चित्त किये बिना यावत् पृष्ठ १६२ उत्पन्न होता है ।
वहाँ वह अन्य देव देवियों के साथ अनङ्ग क्रीड़ा नहीं करता है । स्वयं के विकुर्वित देव देवियों के साथ अनङ्ग क्रीड़ा करता है।
सूत्र ४०
से णं ततो आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं तहेव वत्तव्वं । णवरं-हंता ! सद्दहेज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा। से णं सीलव्वय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण पोसहोववासाइं पडिवज्जेज्जा ? णो तिणठे समझें। से णं दसणसावए भवति ।
अभिगय जीवाजीवे, जाव-अदिमिज्जापेमाणुरागरते “अयमाउसो !. निग्गंथ-पावयणे अटें, एस परमठे सेसे अणठे ।"
से णं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बहुइं वासाइं समणोवासग-परियागं पाउणइ, बहूई वासाइं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति ।