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आयारबसा
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वह आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर देवलोक से च्यव कर किसी कुल में उत्पन्न होता हैं। (पूर्व के समान वर्णन कहना चाहिये देखें पृष्ठ १६३)
विशेष प्रश्न-वह केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखता है ?
उत्तर-हाँ वह केवलि प्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखता है ?
प्रश्न-क्या वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास करता है ?
उत्तर-यह संभव नहीं है। वह केवल दर्शन-श्रावक होता है । जीवअजीव के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता होता है...यावत्...अस्थि एवं मज्जा में धर्म के प्रति अनुराग होता है । हे आयुष्मान् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही जीवन में इष्ट है । यही परमार्थ है । अन्य सब निरर्थक है। ___ वह इस प्रकार अनेक वर्षों तक आगार धर्म की आराधना करता है । जीवन के अन्तिम क्षणों में किसी एक देवलोक में देव रूप उत्पन्न होता है। .
सूत्र ४१
एवं खलु समणाउसो ! तस्स.णियाणस्स इमेयारवे पावए फलविवागेजंणो संचाएति सीलव्वय-गुणव्यय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं पडिवज्जित्तए।
__ इस प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो ! ऊस निदान का यह पाप रूप विपाक फल है, जिससे वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास नहीं कर सकता है।
अट्ठमं णियाणं सूत्र ४२
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते-तं चेव सव्वं । जावसे य परक्कममाणे दिव्वमाणुस्सएहि कामभोगेहि णिग्वेदं गच्छेज्जा
"माणुस्सगा कामभोगा अधुवा जाव-विप्पजहणिज्जा; विश्वा वि खलु कामभोगा अधुवा, अणितिया, असासया, चलाचलणधम्मा, पुणरागमणिज्जा पच्छापुव्वं च णं अवस्सं विप्पजहणिज्जा।"
जइ इमस्स तव-नियमस्स जाव-अहमवि आगमेस्साए जे इमे भवंति उग्गपुत्ता महामाउया