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आयारवसा
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स्वयं के विकुर्वित देव या देवियों के साथ अनंगक्रीड़ा करते हैं या अपनी देवियों के साथ अनंग क्रीड़ा करते हैं।
यदि इस (तप-नियम एभं ब्रह्मचर्य-पालन का फल प्राप्त हो तो (पूर्व के समान सारा वर्णन देखें पृष्ठ १५८ यावत् ।)
प्रश्न-वे केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा प्रतीति करते हैं ?
उत्तर-यह संभव नहीं है । क्योंकि वे अन्य दर्शनों में रुचि रखते हैं। अतः पर्ण कुटियों में रहने वाले अरण्यवासी तापस- और ग्राम के समीप की वाटिकाओं में रहने वाले तापस तथा अदृष्ट होकर रहने वाले जो तांत्रिक हैं असंयत हैं। प्राण भूत जीव और सत्व की हिंसा से विरत नहीं हैं । वे सत्यमृषा (मिश्र भाषा) का प्रयोग करते हैं। - यथा-मैं हनन योग्य नहीं हूं, हनन योग्य हैं वे अन्य हैं."
मैं आदेश देने योग्य नहीं हूँ, आदेश देने योग्य हैं वे अन्य हैं मैं परिताप देने योग्य नहीं हूँ, परिताप देने योग्य हैं वे अन्य हैं
मैं पीड़न योग्य नहीं हूँ, पीड़न योग्य हैं वे अन्य हैं। इसी प्रकार वे स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में मूछित-ग्रथित, गृद्ध एवं आसक्त यावत् पृष्ठ जीवन के अन्तिम क्षणों में देह त्याग कर किसी असुर लोक में किल्विषिक देवस्थान में उत्पन्न होते हैं। . वहां से वे विमुक्त हो (देह छोड़) कर पुन: भेड़-बकरे के समान मनुष्यों में मूक (गूगा-बहरा) रूप में उत्पन्न होता है ।
हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का विपाक-फल यह है कि वे केवलिप्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा प्रतीति एवं रुचि नहीं रखते हैं। .
सत्तमं णियाणं सूत्र ३६
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पण्णत्ते। जाव-माणुस्सग्गा खलु कामभोगा अधुवा, तहेव। संति उड्ढं देवा देवलोगंसि ।
तत्थ णं णो अण्णेसि देवाणं अण्णे देवे अण्णं देवि अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेइ,
णो अप्पणो चेव अप्पाणं वेउब्धिय वेउम्विय परियारेइ, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अभिमुंजिय अभिमुंजिय परियारेइ । जइ इमस्स तव नियमस्स तं सव्वं ।