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________________ १५२ छेदसुत्ताणि उद्यान में) ठहरे हैं, (अभी) यहाँ विद्यमान हैं.-यावत्...आत्म-साधना करते हुए समाधिपूर्वक विराजित हैं। हे देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा को यह संवाद सुनाएँ (और उन्हें कहें कि) आपके लिए यह संवाद प्रिय हो" इस प्रकार एक दूसरे ने ये वचन सुने। वहाँ से वे राजगृह नगर में आए । नगर के मध्य भाग में होते हुए जहाँ श्रोणिक राजा का राजप्रासाद था और जहाँ श्रेणिक राजा था वहाँ वे आये। श्रेणिक राजा' को हाथ जोड़कर......यावत् ......जय विजय बोलते हुए बधाया । और इस प्रकार कहा : _ "हे स्वामिन् ! जिनके दर्शनों की आप इच्छा करते हैं......यावत् ... ...विराजित हैं. इसलिए हे देवानुप्रिय ! यह प्रिय संवाद आपसे निवेदन कर रहे हैं । यह संवाद आपके लिये प्रिय हो। सूत्र ११ तए णं से सेणिए राया तेसि पुरिसाणं अंतिए एयमझें सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ जाव-हियए सोहासणाओ अन्मुद्रुइ, . अन्मुट्टित्ता वंदति नमसइ ; वंदित्ता नमंसित्ता ते पुरिसे सक्कारेइ सम्माणेइ : .. सक्कारिता सम्माणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ, दलइत्ता पडिविसज्जेति । पडिविसज्जित्ता नगरगुत्तियं सद्दावेइ । __ सद्दावेत्ता एवं वयासी "खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! रायगिहं नगरं सभितर-बाहिरियं आसियसंमज्जियोवलित्तं (करेह)" जाव-करित्ता पच्चप्पिणंति । उस समय श्रेणिक राजा उन पुरुषों से यह संवाद सुनकर एवं अवधारण कर हृदय में हर्षित-संतुष्ट हुआ......यावत्......सिंहासन से उठा। श्रमण भगवान महावीर को वंदना नमस्कार किया । और उन्हें प्रीति पूर्वक आजीविका योग्य विपुल दान देकर विसर्जित किया। बाद में नगररक्षक को बुलाकर इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रिय ! राजगृह नगर को अन्दर और बाहर से परिमाजित कर जल से सिञ्चित करो.......यावत्......मुझे सूचित करो। सूत्र १२ तए णं से सेणिए राया बलवाउयं सदावेइ । सद्दावेत्ता एवं वयासी"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हय-गय-रह-जोह कलियं चाउरंगिणिं से णं सण्णाहेह।" जाव-से वि पच्चप्पिणइ ।
SR No.002225
Book TitleChed Suttani Aayar Dasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherAagam Anyoug Prakashan
Publication Year1977
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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