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आयारदसा ।
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जस्स णं देवाणुप्पिया ! सेणिए राया नामगोत्तस्स वि सवणयाए हट्ठतुझे जाव-भवति,
से णं समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थयरे जाव-सवण्णू सम्वदंसी,
पुव्वाणुपुग्वि चरमाणे, गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुहं सुहेण विहरमाणे इह आगए, इह समोसढे, इह संपत्ते जाव-अप्पाणं भावेमाणे सम्म विहरति ।
तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! सेणियस्स रण्णो एयमलै निवेदेमो-"पियं मे भवतु" त्ति कटु अण्णमन्नस्स वयणं पडिसुणंति । पडिसुणित्ता जेणेव रायगिहे. णयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिह-नगरं मझमझेण जेणेव सेणियस्स रन्नो गिहे, जेणेव सेणिएराया, तेणेव उवागच्छति ।
उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलं परिग्गहिय जाव-जएणं विजएणं वद्धाति ।
वद्धावित्ता एवं वयासी
"जस्स णं सामी ! दंसणं कंखति, जाव-से णं समणे भगवं महावीरे गुणसिले चेइए जाव-विहरति । तस्स णं देवाणुप्पिया ! पियं निवेदेमो। पियं मे भवतु।"
उस समय राजा श्रेणिक के प्रमुख अधिकारी जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे वहाँ आये।
उन्होंने श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वन्दन नमस्कार किया । नाम गोत्र पूछकर स्मृति में धारण किए। और एकत्रित होकर एकान्त स्थान में गए। वहाँ उन्होंने आपस में इस प्रकार बातचीत की।
. . "हे देवानुप्रियो ! श्रेणिक राजा भैभसार. . . . "जिनके दर्शन करना चाहता है,
...जिनके दर्शनों की इच्छा करता है, ...जिनके दर्शनों की प्रार्थना करता है,
....जिनके दर्शनों की अभिलाषा करता है, ...जिनके नाम-गोत्र श्रवण करके भी हर्षित संतुष्ट...यावत् .. होता है।
ये पंच याम धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर...यावत्.... सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं।
अनुक्रमशः सुखपूर्वक गाँव-गाँव घूमते हुए यहाँ पधारे हैं, (गुणशील