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________________ आयारवसा . - दिग्ज्ञापनपूर्वकं गोचरी प्रतिपादिका षड्विंशतितमी समाचारी सूत्र ७४ वासावासं पज्जोसवियाणं निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा कप्पइ अण्णार विसं वा अणुदिसं वा अवगिज्झिय भत्तपाणं गवेसित्तए। से किमाहु भंते ! उस्सणं समणा भगवंतो वासासु तवसंपत्ता भवंति । तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छिज्ज वा, पवडिज्ज वा, तमेव दिसं वा अणुदिसं वा समणा भगवंतो पडिजागरंति । ८/७४ । छब्बीसवीं गोचरी दिशा ज्ञापन समाचारी वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को किसी एक दिशा या विदिशा की (अर्थात् जिस दिशा या विदिशा में जावे उस दिशा या विदिशा की) साथ वालों को सूचना देकर आहार पानी की गवेषणा करना कल्पता है। . - हे भगवन् ! आपने ऐसा क्यों कहा? वर्षाकाल में श्रमण भगवन्त प्रायः तपश्चर्या करते रहते हैं । अतः वे तपस्वी दुर्बल क्लान्त कहीं मूछित हो जाएँ या गिर जाएँ तो साथ वाले श्रमण भगवन्त उसी दिशा में उनकी शोध करने के लिए जावें। ग्लानादिकार्ये गमनागमन-मर्यादा निरूपिका . सप्तविंशतितमी समाचारी सूत्र ७५ वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा, गिलाणहेलं जाव चत्तारि पंच जोयणाई गंतुं पडिनियत्तए । . . अंतरा वि से कप्पइ वत्थए, नो से कप्पइ तं रणि तत्थेव उवायणावित्तए । ८/७५ । सत्ताईसवीं ग्लानार्थ अपवाद-सेवन समाचारी - वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को ग्लान (की चिकित्सा) के लिए चार या पांच योजन तक जाकर लौट आना कल्पता है। - मार्ग में रात्रि रहना भी कल्पता है किन्तु जहाँ जावे वहाँ रात रहना नहीं कल्पता है। विशेषार्थ-इस पर्युषणाकल्प के सूत्र ६ में वर्षाकाल का अवग्रह क्षेत्र एक योजन और एक कोश का कहा गया है। अर्थात् वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थ या.
SR No.002225
Book TitleChed Suttani Aayar Dasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherAagam Anyoug Prakashan
Publication Year1977
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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