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छेवसुत्ताणि निर्ग्रन्थियों को अवग्रह क्षेत्र से बाहर जाना नहीं कल्पता है । यह उत्सर्ग विधान है। . स्थानांग अ० ५ उद्दे० २ सूत्र ४१३ में पांच कारणों से प्रथम प्रावट (वर्षा ऋतु) में ग्रामानुग्राम विहार करने का विधान किया गया है उनमें एक कारण यह है कि आचार्य या उपाध्याय की सेवा के लिए वर्षावास क्षेत्र से बाहर जहां वे हों, वहां जाना कल्पता है। चाहे वे वर्षावास क्षेत्र से कितनी ही ' दूर पर क्यों न हो। यह अपवाद विधान है ।
इस अपवाद सूत्र में विशेष विधान यह है कि किसी एक ग्लान भिक्षु की चिकित्सा के लिए आवश्यक औषधि यदि वर्षावास क्षेत्र में उपलब्ध न हो, पर आस-पास के किसी गांव में उपलब्ध हो तो औषधि लाने के लिए भिक्षु चारपांच योजन तक जा सकता है।
चलते-चलते यदि थक जाए तो विश्राम लेने के लिए मार्ग में रह सकता है। इसी प्रकार आते समय भी मार्ग में एक रात्रि का विश्राम ले सकता है। किन्तु जिस ग्राम में औषधि उपलब्ध हो वहां से वह औषधि लेकर उसी दिन लौट आए । वहां वह रात न रहे।
समाचारी-फलनिरूपणम् सूत्र ७६
इच्चेइयं संवच्छरियं थेरकप्पं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्म कारण फासित्ता पालित्ता सोभित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आराहित्ता आणाए अणुपालित्ता
अत्गइया समणा निग्गंथा तेणेव भवग्गहणणं सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिनिव्वाइंति सव्वदुक्खाणमंतं करंति ।
अत्थेगइया दुच्चेणं भवग्गहणेणं सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिनिव्वाइंति सन्वदुक्खाणमंतं करंति।
अत्थेगइया तच्चेणं भवग्गहणेणं सिझंति बुझंति मुच्चंति परिनिव्वाइंति सव्वदुक्खाणमंतं करंति। सत्त? भवग्गहणाइं पुण नाइक्कमति । ८/७६ ।
अट्ठाईसवीं फल समाचारी जो इस सांवत्सरिक स्थविरकल्प का सूत्र, कल्प और मार्ग के अनुसार सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श कर पालन कर अतिचारों का शोधन कर जीवन