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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
आस्तिक्य-यथार्थ देव, गुरु और धर्म पर दृढ़ श्रद्धा-विश्वास होना। आहार संज्ञा-खाद्य पदार्थों का उपभोग करने की अभिलाषा।
इङ्गित मरण-मृत्यु को निकट जानकर समाधि पूर्वक मृत्यु का आह्वान करना, अथवा जीवन पर्यन्त के लिए अनशन व्रत स्वीकार करके रखी हुई मर्यादित भूमि में ही विचरण करना।
इयत्ता-परिमितता, एक सीमा।
ईर्यापथिक-क्रिया-राग-द्वेष से रहित तीर्थंकरों द्वारा की जाने वाली क्रिया, इससे पुण्य-पाप किसी भी तरह का बन्ध नहीं होता। केवल प्रथम समय में कर्म आते हैं, द्वितीय समय में वेदन-आत्म-प्रदेशों से स्पर्शित होते हैं और तीसरे समय में झड़ जाते हैं।
ईर्या समिति-चलते समय विवेक पूर्वक देखकर चलना। अपने मन-वचन और काय योग को धर्म-चर्चा, चिन्तन-मनन एवं अन्य सब विषयों से हटाकर मार्ग अवलोकन में लगाना।
उपभोगावशिष्ट-उपभोग-काम में लेने के बाद शेष बचे हुए पदार्थ। उत्पाद-उत्पन्न होना।
उत्सर्ग-वह मार्ग जिसकी साधना सदा-सर्वदा की जा सके। सदा आचरण करने योग्य साधना-पथ।
उत्सर्पिणी-यह दस कोटा-कोटि सागरोपम का काल होता है, इसमें 6 आरे-समय का एक (नाप)-होते हैं। इसके प्रत्येक आरे में सुख-समृद्धि, शरीर, संघयन, आयु आदि की वृद्धि होती रहती है।
उद्गमन के दोष-आहार के वे दोष जो अन्ध अनुरागी भक्त के द्वारा लगाए जाते हैं। आधाकर्मी आदि-साधु के निमित्त आहार आदि बनाकर देना। ____ उत्पादन के दोष-आहार ग्रहण करने के वे दोष जो स्वाद लोलुपी साधु के द्वारा सेवन किए जाते हैं।
उद्भिज-पृथ्वी का भेदन करके उत्पन्न होने वाले प्राणी टिड्डी, पतंगे आदि।