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नवम अध्ययन, उद्देशक 4 मूलम्- एस विहि अणुक्कतो, माहणेण मईमया।
बहुसो अपडिन्नेण, भगवया एवं रीयंति ॥17॥ त्तिबेमि छाया- एषः विधिः अनुक्रान्तः माहनेन मतिमता।
बहुशः अप्रतिज्ञेन, भगवता एवं रीयन्ते॥ इति ब्रवीमि पदार्थ-अपडिन्ने-प्रतिज्ञा से रहित। भगवया-ऐश्वर्य सम्पन्न। मईमयामतिमान। माहणेण-भगवान महावीर ने। बहुसो-अनेक बार। एस विहि-उक्त विधि का। अणुक्कतो-आचरण किया और उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट इस विधि का अन्य साधकों ने भी अपने आत्म-विकास के लिए। एवं-इसी प्रकार। रीयंति-परिपालन किया। तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं। ___ मूलार्थ-प्रतिज्ञा से रहित ऐश्वर्य संपन्न, परम मेधावी भगवान महावीर ने उक्त विधि का अनेक बार आचरण किया और उनके द्वारा आचरित उवं उपदिष्ट इस थिधि का अपने आत्मविकास के लिए अन्य साधक भी इसी प्रकार परिपालन करते हैं। इस प्रकार मैं कहता हूं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत गाथा का विवेचन प्रथम उद्देशक की अन्तिम गाथा में किया जा चुका है। यहां इतना ध्यान रखें कि यह गाथा प्रस्तुत अध्ययन के चारों उद्देशकों के अन्त में • दुहराई गई है। इसमें ‘माहणेण मईमया' विशेषण कुछ गम्भीरता को लिए हुए हैं। यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर क्षत्रिय थे, फिर भी उनको मतिमान माहण-ब्राह्मण कहा है। इससे यह ज्ञात होता है कि उस समय ब्राह्मण शब्द विशेष प्रचलित रहा है और इससे श्रमण संस्कृति के इस सिद्धान्त का भी स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता, बल्कि कर्म से होता है। भगवान महावीर की साधना माहण-हिंसा नहीं करने की साधना थी। वे सदा अहिंसा एवं समता के झूले में झूलते रहे हैं। इसी कारण उन्हें मतिमान ब्राह्मण कहा है। कहां वैदिक यज्ञ अनुष्ठान में उलझा हुआ, हिंसा में अनुरक्त, रक्तरंजित हाथों वाला ब्राह्मण और कहां अहिंसा, दया एवं क्षमा का देवता ब्राह्मण। दोनों की जीवन रेखा में आकाश-पाताल जितना अंतर! यही कारण है कि सूत्रकार ने वैदिक परत्परा में प्रचलित ब्राह्मण शब्द