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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
छाया- स्वयमेव अभिसमागस्य, आयतयोगमात्मशुद्धया।
___ अभिनिवृत्तः अमायावी यावत् कथं भगवान् समित्त आसीत्॥ पदार्थ-सयमेव-स्वात्मा से तत्त्व को। अभिसमागम्म-जानकर भगवान तीर्थप्रवर्तन करने के लिए उद्यत हुए। आयसोहीए-आत्म शुद्धि से। आयत योगसुप्रणिहित मन-वचन और काय योग को धारण करके। अभिनिव्वुडे-वे कषायों के उपशम से अभिनिवृत्त हो गए थे। अमाइल्ले-माया से रहित होकर। भगवंभगवान । आवकह-जीवन पर्यन्त। समियासी-पांच समिति और तीन गुप्तियों के परिपालक थे।
मूलार्थ-स्वतः तत्व को जानने वाले भगवान महावीर अपनी आत्मा को शुद्ध करके त्रियोग को वश में करके कषायों से निवृत्त हो गए थे और वे समिति एवं गुप्ति के परिपालक थे। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत गाथा में बताया है कि भगवान ने किसी के उपदेश से दीक्षा नहीं ली थी। वे स्वयं बुद्ध थे, अपने ही ज्ञान के द्वारा उन्होंने साधना-पथ को स्वीकार किया और राग-द्वेष, कषायों एवं प्रमाद का त्याग करके आत्म-चिन्तन के द्वारा चार घातिक कर्मों का सर्वथा नाश करके वे सर्वज्ञ एवं सवदर्शी बने।
साधना-पथ पर चलने वाले साधक के सामने कितनी कठिनाइयां आती हैं, यह भी उनके जीवन की साधना से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कह कर ही नहीं, बल्कि स्वयं साधना करके यह बता दिया कि साधक को प्राणान्त कष्ट उत्पन्न होने पर भी अपने साधना-मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए। उसे सदा उत्पन्न होने वाले परीषहों को समभाव से सहन करना चाहिए। इस तरह भगवान महावीर समिति-गुप्ति से युक्त होकर साढ़े बारह वर्ष तक विचरे और अपनी साधना के द्वारा राग-द्वेष एवं घातिक कर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ बने और आयुकर्म के क्षय के साथ अवशेष अघातिक कर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हो गए।
प्रस्तुत उद्देशक का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं
बने।