________________
नवम अध्ययन, उद्देशक 4
899
शब्दादि में अमूर्छित होकर ध्यान करते थे। छद्मस्थ होने पर भी सदनुष्ठान में पराक्रम करते हुए उन्होंने एक बार भी प्रमाद नहीं किया। हिन्दी-विवेचन
मन एवं चित्तवृत्ति को स्थिर करने के लिए राग-द्वेष एवं कषायों का परित्याग करना आवश्यक है। जब तक जीवन में कषायों का अंधड़ चलता रहता है, तब तक मन की वृत्तियां चिन्तन में एकाग्र नहीं हो सकतीं। दीपक की लौ हवा के झोंकों से रहित स्थान में ही स्थिर रह सकती है। इसी तरह चिन्तन की ज्योति कषायों की उपशान्त स्थिति में ही स्थिर रहती है। इसके परिज्ञाता भगवान महावीर ने साधना-काल में मन एवं चित्तवृत्ति को आत्म-चिन्तन में एकाग्र करने के लिए राग-द्वेष एवं कषायों का परित्याग कर दिया और प्रमाद का भी त्याग करके राग-द्वेष का समूलतः नाश करने के लिए प्रयत्नशील हो गए। प्रमाद शुभ कार्य में बाधक है, वह आत्मा को अभ्युदय के पथ पर बढ़ने नहीं देता है। इसलिए भगवान महावीर ने उसका सर्वथा परित्याग कर दिया था। छद्मस्थ अवस्था में भगवान ने कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं किया। इसी अध्ययन के दूसरे उद्देशक की चौथी गाथा में भी बताया है कि भगवान ने अप्रमत्त भाव से साधना की। यहां इस बात को और स्पष्ट कर दिया है कि भगवान ने छद्मस्थ काल में कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं किया था।
छद्म का अर्थ होता है-छिद्र। यहां इसका तात्पर्य द्रव्यछिद्रों से नहीं, भावछिद्रों से है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म को भावछिद्र कहा है। अतः ये भाव-छिद्र जिस आत्मा में स्थित हैं, उन्हें छद्मस्थ कहते हैं और इनका क्षय कर देने पर व्यक्ति सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाता है। साधनाकाल में भगवान भी छद्मस्थ थे। इनका नाश करने के लिए वे प्रमाद का त्याग करके सदा आत्म-चिन्तन एवं संयम-साधना में संलग्न रहते थे।
इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैंमूलम्- सयमेव अभिसमागम्म आयतयोगमाय सोहीए।
अभिनिव्वुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समियासी॥16॥ 1. इसकी व्याख्या अ. 9 उ. 2 की गाथा 4 के विवेचन में विशेष रूप से की गई है।